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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् ईशानकोणे सिद्धायतनं तथा तस्येशानकोणे उपपातसभा एवं पूर्वस्मात् २ परं परमीशानकोणे वक्तव्यं यावद्वलिपीठादुत्तरपूर्वस्यां नन्दापुष्करिणीति, क्वचिद् द्वित्वेन क्वचिच्चैकत्वेन पदनिर्देशः सूत्रकारप्रवृत्तिवैचित्र्याद् बोध्यः । इति यमका राजधान्योर्वर्गनम् ॥ अथ यमिका राजधान्यधिपयोर्यमक देवयो रुत्पत्यादि स्वरूपं संक्षिपन् सङ्ग्रहगाथामाह'उबवाओ संकप्पो' इत्यादि - 'उववाओ' उपपातः - यमिकाभिधयोर्देवयोरुत्पत्तिः सा वाच्या, ततः ‘सकप्पो'- सङ्कल्पः - उत्पन्नयो देवयोः शुभव्यवसायचिन्तनलक्षणः सङ्कल्पः ततः 'अभिसेय विहसणा' अभिषेक - विभूषणा अभिषेकः - इन्द्रकृताभिषेकः तत्सहिता विभूषणासभा में जानेकी इच्छावाले एवं नये उत्पन्न देवके हस्तपाद - हाथ पाउं धोने के लिये है ऐसा समझे' जैसा सुधर्म सभा के ईशान कोण में सिद्धायतन कहा है उसी प्रकार सिद्धायतन के ईशान कोण में उपपात सभा है एवं पूर्व से अन्य अन्य ईशान कोण में कहना चाहिए यावत् बलिपीठ के ईशान में नन्दापुष्करिणी कही है। 'कहिं पर द्विवचन एवं कहिं पर एक वचन से जो निर्देश किया है सो सूत्र कार की शैलि की विचित्रता से समझे' 'मिका राजधानी का वर्णन समाप्त' अब यमिका राजधानी के अधिपति यमकदेव के उत्पत्ति आदि स्वरूप को संक्षिप्त कर संग्रह गाथा कहते हैं-'उववाओ संकष्पो' इत्यादि - 'उववाओ' उपपात यमिक नामधारीदेव की उत्पत्ति कहनी तदनन्तर 'संकप्पो' उत्पन्न हुवे देव के शुभ व्यवसाय चिन्तनरूप संकल्प उसके पीछे 'अभिसेय विहसणा' इन्द्रने किया हुवा अभिषेक सहित अलङ्कार सभा में अलङ्कारों से शरीर को अलंकृत करना २४५ જેવું સુધર્માંસભાની ઇશાન દિશામાં સિદ્ધાયતન કહેલ છે. એજ રીતે સિદ્ધાયતનની ઈશાન દિશામાં ઉપપાત સભા આવેલ છે, પહેલાંથી અન્ય અન્ય ઈશાન દિશામાં કહેવા જોઈએ યાવત્ ખલિપીઠની ઇશાનમાં નોંદા પુષ્કરિણી કહેલ છે. કયાંક દ્વિવચન અને કયાંક એકવચનથી જે કથન કરેલ છે તે સૂત્રકારની શૈલીની વિચિત્રતાથી છે તેમ સમજવુ. ૫ યામિકા રાજધાનીનું વર્ણન સમાપ્ત ! હવે યામિકા રાજધાનીના અધિપતિ યમક ધ્રુવની ઉત્પત્તિ આદિના કથનને ટુકવીને સગ્રહ ગાથા કહે છે. 'वाओ कप्पो' इत्यादि 'उववाओ' उपयात-यभि तेपछी 'संकल्प' उत्पन्न थयेस हेवना शुलाध्यवसायना 'अभिसेयविहूसणा' न्द्रे उस व्यलिषेड सहित असर જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર नाभवाना हेवनी उत्पत्ति अहेवी चिन्तन ३५ समुदय, ते पछी सलाभां अस अशथी शरीरने
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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