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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अत्रान्तरे खलु द्वौ प्रासादावतंसको-प्रासादोत्तमौ 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तौ, तयोर्मानमाह- तेणं' इत्यादि, 'तेणं पासायवडिसगा' तौ खलु प्रासादावतंसको 'बावटि जोयणाई अद्धजोयणं च' द्वाषष्टि योजनानि अर्द्धयोजनम्-योजनस्यार्द्धम् च 'उद्धं उच्चत्तेणं इक्कतीसं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'कोसं च' क्रोशम्-एक क्रोशं च 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विस्ताराभ्याम् प्रज्ञप्ताविति पूर्वेण सम्बन्धः, 'पासायवण्णओ' प्रासादवर्णकः-प्रासादवर्णकः-वर्णनपरः पदसमूहो 'भाणियब्वो' भणितव्यः-वक्तव्यः, सच राजप्रश्नीयसूत्रस्याष्टषष्टितमसूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकातो बोध्यः, 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि सपरिवाराणि-इतरसिंहासनसहितानि मुख्यसिंहासनानि वर्णनीयानि तद्वर्णनमष्टमसूत्रस्य टीकातो बोध्यम् तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह 'जाव' यावत् 'एत्थ णं' इत्यादि-'एत्थ णं' अत्र-प्रासादस्थसिंहासनोपरि खलु 'जमगाणे' यमकयोः-यमकनाम्नो: अर्थातू उत्तम महल 'पण्णत्ता' कहे हैं । प्रासाद का नाम कहते हैं-'तेणं' इत्यादि __'तेणं पासायवडे सगा' वे प्रासादावंतसक 'बावहि जोयणाई अद्धजोयणं च' अर्द्ध योजन युक्त बासठ योजन 'उद्धं उच्चत्तणं' उपरकी और ऊंचाई वाले हैं 'एकत्तीसं जोयणाई' इकतीस योजन 'कोसं च' और एक कोस उनका 'आयाम विक्खंभेणं' आयाम विष्कम्भ वाले अर्थात् इन प्रासादों का विस्तार 'पण्णत्ता' कहा है 'पासायवण्णओ' प्रासाद का वर्णन 'भाणियव्वो' यहां पर कहलेने चाहिए। वह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्रके ६८ अडसठवें सूत्र में मेरे द्वारा की गई सुबोधिनी नाम की टीका से जान लेवें। 'सीहासणा सपरिवारा' यहां परिवार सहित सिंहासनों का वर्णन करलेवें वह वर्णन आठवें सूत्रकी टीकासे ज्ञात करलें। यह वर्णन कहां तक ग्रहण करना इसके लिए कहते हैं 'जाव' यावतू 'एस्थ णं' प्रासाद में रहे हुवे सिंहासनके ऊपरमें 'जमगाणं' यमक नामके 'देवाणं' देवके अर्थात् यमक पर्वत के अधिपति इवे भसनु भा५ वामां आवे छे. 'तेणं' या 'तेणं पासायवडेंसगा' ते उत्तम भरत 'बावदि जोअणाइं अद्धजोयणं च' साल मास: योजन 'उद्धं उच्वत्तेणं' ५२नी त२३ या छ. 'इक्कतीसं जोयणाई' येत्रीस योन 'कोसंच' मन में न 'आयामविक्खंभेणं' मायाम विलवाणा अर्थात् मेट से प्रासादानी विस्ता२ 'पण्णत्तो' हेवाभा मावस छ 'पासायवण्णओ' प्रासाहानुस पूर्ण वर्णन 'भाणियव्यो' मा sी वेन. ते न राप्रश्नीय सूत्रन। ६८ २५सभा सूत्रनी મેં કરેલ સુધિની ટીકામાંથી સમજી લેવું. _ 'सीहासणा सरिपवारा' मी या परिवार सहित सिंहासनानुवष्णु ४६ नये. તે વર્ણન આઠમા સૂત્રની ટીકામાંથી સમજી લેવું. એ વર્ણન અહિયાં ક્યાં સુધીનું લેવું તેને भाट 'जाव' यावत् एत्थणं' प्रासाहीनी १२ २३सा सिंहासनानी 6५२ 'जमगाणं देवाण' જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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