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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् १०७ मुखप्रवृत्तिकस्तेन तथा महाघटमुखानिःसरजलसमूहवच्छब्दायमानवेगवता प्रपातेनेत्यग्रिमेण सम्बन्धः, मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वि योजनशतिकेन साधिक योजनशतद्वयप्रमाणेन प्रपातेन निर्झरेण प्रपतति, अथास्याः प्रपततस्थानं प्रदर्शयितुमाह-'रोहिया णं' इत्यादि, 'रोहियाणं महाणई जओ पवडइ एत्य णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता' रोहिता खल महानदी यतः यस्मात् स्थानात् प्रपतति, अत्र तत्प्रपतनस्थाने खलु एका महती बृहती जिहिका तदाकारवस्तुविशेषः प्रणालिका प्रज्ञप्ता, अथ तस्या निहिकाया मानाद्याह-‘सा णं जिब्भिया' इत्यादि, सा खलु जिबिका-सा अनन्तरोक्ता खलु जिविका 'जोयणं आयामेणं अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं' योजनमायामेन अर्द्धत्रयोदश योजनानि-द्वादश योजनानि पूर्णानि त्रयोदशस्य योजनस्यार्द्धम् विष्कम्भेण विस्तारेण, 'कोसं बाहल्लेणं मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा' क्रोशम् एकं क्रोशम् बाहल्येन पिण्डेन, मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता विवृत (व्यात्त) मकरमुखवस्थिता, मूले विवृतस्य पूर्वप्रयोगार्हत्वेऽपि परप्रयोगः प्राकृतत्वात् , सर्ववज्ररत्नमयी-सर्वात्मना वज्ररत्नमयी अच्छेति उपलक्षणतया श्लक्ष्णेत्यादि बोधकम् तत्सङ्ग्रहः सार्थश्चतुर्थसूत्राद् बोध्यः। अथासौ रोहिता महानदी यत्र प्रपतति हुई अपने घटमुख प्रवृत्तिक एवं मुक्तावलिहार तुल्य ऐसे प्रवाह से पर्वत के नीचे रहे हए रोहित नामके प्रपात कुण्ड में गिरती है पर्वत के ऊपर से नीचे तक गिरनेवाली वह प्रवाह प्रमाण में कुछ अधिक दो सौ योजन का है (रोहिआमहाणदी जओ पवडइ एत्थणं महं एगा जिभिया पण्णत्ता) रोहिता नदी जिस स्थान से उस प्रपात कुण्ड में गिरती है वह एक विशाल जिबिका है (मा जिन्भिया जोयणं आयामेणं अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं कोसं बाहल्लेणं मगरमुखविउट्ठसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा) यह जिद्विका आयाम में -लम्बाई में-एक योजनकी है तथा एक कोशकी इसकी मोटाई है आकार इसका खले हए मगर के मुह जैसा है यह सर्वात्मना वज्र रत्नमयी है तथा आकाश एवं स्फटिक के जैसी यह निर्मल है (रोहिआणं महामई जहिं पवडइ एस्थ णं ભિખી થઈનેવહે છે. એ પિતાના ઘટમુખ પ્રવૃત્તિક તેમજ મુક્તાવલિહાર તુલ્ય પ્રવાહથી પર્વતની નીચે આવેલા રહિત નામક પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. પર્વત ઉપરથી નીચે સુધી पउनात प्रवाई प्रभामा ४ वधारे असे यापन २ छ. 'रोहिआ णं महाणदी जओ पवडइ एत्थणं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता' तिनही २ स्थान ५२थी प्रपात मा ५ छ. ते स्थान में वि । ३५मा छे. 'सा ण जिन्भिया जोयणं आया. मेणं अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेणं कोसं बाहल्लेणं मगरमुखविउद्वसंठाणसंठिया सव्ववइ. रामई अच्छ।' 22 Clast मायाम-05-मां-से योन २८४ी छे तमान मे ॥ જેટલી એની મોટાઈ છે એને આકાર ખુલા મગરના મુખ જેવું છે. એ સર્વાત્મના 4*२त्नमयी छे तम०४ मा॥२भने २६४४ प नि छे. 'रोहिआणं महाणई जहिं જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006355
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages806
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size51 MB
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