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________________ Avwwwmarwa जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सूपशब्दस्य सूपकारशतानि त्रिषष्टयाधिकशतानि सूपकारान्-रसवतीकारान् इत्यर्थः 'अट्टारस सेणिप्पसेणीओ' अष्टादश श्रेणिप्रश्रेणीः 'अण्णेय बहवे राईसर तलवर जाव सत्थवाहप्पभियओ' अन्यांश्च बहून् राजेश्वर तलवर यावत् सार्थवाहप्रभृतीन् शब्दयति आह्वयति अत्र यावत्पदात् माडम्बिककौटुम्बिकमन्त्रिमहामन्त्रि गणकदौवारिकामात्य चेटपीठमर्दनगरनिगमश्रेष्ठिसेनापतिसार्थवाहदूतसन्धिपालपदानि ग्राह्यानि एतेषां व्याख्यानम् अस्मि नेव तृतीयवक्षस्कारे सप्तविंशतितमे सूत्रे द्रष्टव्यम् 'सदावित्ता' शब्दयित्वा आहूय एवं वयासो' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान् इत्याह-'अभिजिएणं' इत्यादि 'अभिजिएणं देवाणुप्पिया ! मए णिअगबलवीरिअ जाव केवलकप्पे भरह वासे त तुब्भेणं देवाणुप्पिया ! मम महया रायाभिसेयं वियरह' अभिजितं खलु देवानुप्रिया ! मया निजकबलवीर्य यावत्-निजकबलवीयपराक्रमेण क्षुद्रहिमवनिरिसागरमर्यादया केवलकल्पम् सम्पूर्ण भारतं वर्षम् तत्-तस्मात् यूयं खलु देवानुप्रियाः मम महाराज्या. भिषेक वितरत-कुरुत 'तएणं से सोलसदेवसहस्सा जाव प्पभिइओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हहतुट्ट करयल मत्थए अंजलिं कटु भरहस्स रण्णो एयम सम्मं विणएणं को, अठारह श्रेणिप्रश्रेणि जनों को दूसरे और भी अनेक राजेश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि कों को बुलाया यहां आगत यावत्पद से" कौटुम्बिक मंत्री, महामंत्री, गणक दौवारिक अमात्य चेट, पीठमर्द, नगर निगम श्रेष्ठिजन सेनापति, सार्थवाह दूत, सन्धिपाल" इन सबका ग्रहण हुआ है. (सदाविता एवं वयासी) बुलाकर भरत महाराजा ने उन से ऐसा कहा-(अभिजिएणं देवाणुप्पिया ! मए णियगवलबीरिय जाव केवलकप्पे भर हे वासे) हे देवानुप्रियो ! मैंने अपने बलबीर्य एवं पुरुषकार पराक्रम से इस सम्पूर्ण भरत खण्ड को अपने वश में कर लिया है. (तं तुभेणं देवाणुप्पिया ! मम महया रायाभिसेयं वियरह) इसलिये हे देवानुप्रियो ! आप सब वडे ठाट बाट से मेरा राज्याभिषेक करो.(तएणं से सोलसदेवसहस्सा जाव पभिइओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ट तुटू करयलमत्थए अंजलि कटु भरहस्स रण्णो एयमढं सम्मं विणएणं पडि सुति) इस प्रकार श्री भरत महाराजा द्वारा રત્નને, ગથાપતિ રનને ૩૬૦ રસવતી કારકને ૧૮ શ્રેણિ પ્રશ્રેણિ જનોને બીજા અનેક રાજે १। तसवरे। यावत् साथवाडा विगेरे २ साताव्या. मी मावता यावतू ५४थी "माडंविक, कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक, अमात्य, चेटपीठमर्द, नगरनिगम श्रेष्ठिजन, सेनापति, सार्थवाह, दूत, सन्धिपाल" में सर्प पार्ने अडाए थयु छ. (सदाविता एवं वयासी) मालावीन लरत २० मे तमने मी प्रमाणे ह्यु. (अभिजिएणं देवाणुपिया! मए णियगबलवीरिय जाव केवलकप्पे भरहे वासे) पानुप्रिया ! में २१५सवाय तेभर पुरुष७२ ५२।मथी मा सम्पूर्ण सरत ने शमां री सीधा छे. (तं तुब्मेणं देवाणु दिपया! मम महया रायाभिसेयं वियरह) अथावानुप्रिया! तमे स भूम०४ 8-म! ४थी मारे। राज्याभिषे ४२. (तएणं से सोलसदेवसहस्सा जावपभिइओ भरतेणं रण्णाएवं वुत्ता समाणा हट्ट-तुटू करयल मत्धए अंजलि कटु भरहस्स रण्णो एयम8 सम्मं विणएणं જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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