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________________ प्रकाशिका टीका तृ०३वक्षस्कारःसू०२७ दक्षियर्द्धगतभरतकायेवर्णनम् तत्र एते नवनिधयः प्रभूतधनरत्नसंचयसमृद्धा ये भरताधिपानां षट्खण्डभरतक्षेत्राधिपानां चक्रवर्तिनः वशमुपगच्छन्ति वश्यतां यान्ति, एतेन वासुदेवानां चक्रवर्तित्वेऽ. पि एतद्विशेषणप्रतिषेधो भवति ॥१३॥ अथ पट्खण्डदत्तदृष्टि भरतो यथोत्सहते तथा माह-'तए णं' इत्यादि । 'तएणं से भरहे राया अट्ठम मत्तसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ' ततः खलुस श्रीमद्भरतो महाराजा अष्टमभक्ते परिणमति-परिपूर्णे जायमाने सति पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छति एवंमज्जनघरपवेसो जाव सेणिप्पसे णि सद्दावणया जाव णिहिरयणाणं अट्ठाहियं महामहिमं करेइ' एवं मज्जनगृहप्रवेशः मज्जनगृहे स्नानाथ प्रवेशो यस्य स तथा यावत्पादात् कृतस्नानः ततो निर्गच्छतीत्यादि बोध्यम् ततः श्रेणिप्रश्रेणिशब्दापनता श्रेणिप्रश्रेण्यः आह्वानं यावत् निधिरत्नानां प्रोतनवानाम् अष्टाहिकां महोमहिमां एए णवणिहिरयणा पभूय धणरयणसमिद्धा । जेव समुवगच्छंति भरहाविव चक्कवट्टीणं ॥१३॥ इन नवनिधियों के प्रभाव से इनके अधिपति को अपार धन रत्नादिरूप समृद्धि का संचय होता रहता है. क्योंकि ये निधियाँ स्वयं अपार धन रत्नादि संचय से समृद्धहोती हैं। ये भरतक्षेत्र के छह खंडों का विजय करनेवाले चक्रवर्तियों के ही वश में रहती है इस तहर वासुदेव भी अधचक्री होते हैं. परन्तु वे उनके वश में नहीं होती हैं । क्योंकि ये तो पूर्ण चक्रवर्ती राजा के ही वश में रहती है । (तएणं से भरहे राया अट्टमभत्तसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ ) जब भरत नरेश की अट्टम भक्त की तपस्या परिपूर्ण हो गइ तब वह पौषधशाला से बाहिर निकला (एवं मज्जनघरप्पवेसो जाव सेणिप्पसेणो सदावेइ व्हाया जाव णिहिरयणाणं अट्ठाहियं महामहिमं करेइ ) और निकल कर वह स्नान घर में गया-वहाँ अच्छी तरह से स्नान किया फिर वहां से निकल कर वह भोजनशाला में गया इत्यादि रूप से सब कथन पूर्वोक्त जैसा ही यहाँ पर कह लेना चाहिये इसकेबाद उसने श्रेणि प्रश्रेणिजनो को बुलाया और निधिरत्नों की वश्यता के उपलक्ष्य एए णवर्णािहरयणा पभूयधणरयणसमिद्धा । जेव समुवगच्छंति भरहाविव चक्कवट्टीणं ॥१॥ એ નવનિધિઓના પ્રભાવથી એમના અધિપતિને અપરિમિત ધન-રતનાદિ રૂ૫ સમૃદ્ધિનું સંચયન થતું રહે છે. કેમકે એ નિધિ એ જાતે અપારધન-રત્નાદિ સંચયથી સમૃદ્ધ હોય છે. એ ભરતક્ષેત્રનાં ૬ ખંડે ઉપર વિજય મેળવનારા ચક્રવતીઓના વશમાં જ રહે છે. આ પ્રમાણે વાસુદેવપણ અર્ધચકી હોય છે, પણ એ તેમના વશમાં રહેતી નથી. કેમકે એએતો પૂર્ણ पतीना शमा २९ छे. (तषण से भरहे राया अहमभत्तं सि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमई )यारे मरतनरेशनी मममी तपस्या ५२५ गध त्यारे ते पौषधशाणामांथी महा२ नाया (वं मज्जनघरपवेसो जाब सेणिप्पसेणी सदावेइ व्हाया जाव णिहिरयणाण अढाहियं महामहिम करेइ) मने नीजीन स्नानઘરમાં ગયા. ત્યાં તેણે સારી રીતે સ્નાન કર્યું પછી ત્યાંથી નીકળી ને તે ભેજનશાળામાં ગયા ઈત્યાદિ રૂપથી બધું કથન પૂર્વોક્ત જેવું જ અહીં પણ અધ્યાહુત કરી લેવું જોઈએ, ત્યારબાદ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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