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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अवान्तरक्षेत्रखण्डरूपाणि तानि तथा 'ओभवेहि' साधय तत्र विजयं कृत्वाऽस्मदाज्ञां प्रवर्त्तय 'ओअवेता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि' साधयित्वा विजित्य अग्र्याणि वराणि प्रधानानि रत्नानि स्व स्वजातौ उत्कृष्टवस्तूनि प्रतीच्छ गृहाण 'पडिच्छित्ता' प्रतीष्य गृहीत्वा 'मम एयमातियं खिप्पामेव पच्चप्पिणाहि' ममताम् उक्तानुसारिणीम् आज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव प्रत्यर्पय समर्पय 'जहा दाहिणिल्लस्स ओअवणं तहा सव्यं भाणियव्वं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ' यथा दाक्षिणात्यस्य सिन्धुनिष्कुटस्य 'ओअवणं' साधनं तहा सव्वं भाणियव्वं' तथा सर्वे भणितव्यं तावत्सर्वे भणितव्यं वक्तव्यम् 'जाव पच्चणुभवमाणा विहरंति' तावद्वक्तव्यं यावत्सेनानीर्भरतविसृष्टः पञ्चविधान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् विहरतीति । सू०२२।। तदनन्तर किं जात मिति निरूपयन्नाह --- मूलम्-तए णं दिव्वे चक्करयणे अण्णया कयाइं आउहधरसालाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता अंतलिक्खपडिण्णे जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं चुल्लहिमवंतपब्वयाभिमुहे पयाते यावि होत्थो, तएणं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं जाव चुल्लहिमवंतवासहरपव्वयस्स अदूरसामंते दुवालसजोयणायामं जाव चुल्लहिवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभतं पगिण्हइ, तहेव जहा मागहतित्थस्स जाव समुदरवभूअंपिव करेमाणे करेमाणे रूप निष्कुट हैं वहां पर विजय प्राप्त कर हमारी आज्ञा को स्थापितकरो. (ओअवेत्ता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि) ऐसा करके बहुमूल्य श्रेष्ठ रत्नों को अपनी २ जाति में श्रेष्ठ-उत्कृष्ट वस्तुओं को भेटरूप में स्वीकार करो (पडिच्छित्ता भम एयमाणतियं खिप्पामेव पच्चष्पिणाहि) स्वीकार करके मेरी इस आज्ञा की पूर्ति हो जाने की पोछे हमें खबर दो (जहा दाहिणिल्लस्स ओअवणं तहा सव्वं भाणियव्वं जाव पच्चणुभवमाणा विहरं ति) जैसा दाक्षिणात्य-दक्षिणदिग्वर्ती-सिन्धुनदी निष्कुट के विजय करने का प्रकरण “यावत् पच्चणुभवमाणा विहरंति" इस सूत्र पाठ तक कहा जा चुका है. वैसा ही वह सब प्रकरण यहा भी कहलेना चाहिये ॥२२॥ क्षेत्र ३५निट के त्या वियपास ४२ अमारी माज्ञा त्यां स्थापित ४२१. (ओअवेता अग्गाईवराई रयणाई पडिच्छाहि) भाम रीने भूख्य श्रेष्ठ २त्नाने-पातपातानीतिमा श्रेष्ठ-कृष्ट १२तुमाने लेट ३५मा स्वी४१२ ४२१. (पडिच्छिता मम एयमाणतिय सिप्पामेव पच्चप्पिणाहि) स्वी४२ रीने भारी 41 आज्ञानु पावन पूराशते ४२रीन पछी अभने सूयनामापी. (जहा दाहिणिलस्स-ओअवणं तहा सव्वं भाणियव्वं जाव पच्चणुभवमाणा विह. रंति) हाक्षिणात्य-क्षिण हिवती' सिन्धुनही निटना qिv4-५४२१॥ "यावत पच्यणु, भवमाणा विहरंति” थे सूत्रपा: सुधी उपामा मावस छे. ते मधु ५४२७ मत्र પણ સમજવું જોઈએ. રા. જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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