SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 769
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका तृ० वक्षस्कारः सू०१८ भरतसैन्यस्थितिदर्शनम् ७५७ च समुच्चये 'रयणिकरमंडलनिभं रजनिकरमण्डलनिभम, तत्र रजनिकरमण्डलं - चन्द्रविम्बं तस्य निभं- सदृशं तुल्यम् परिभ्राम्यमाणं यद्वतुलित तेजस्कत्वेन चन्द्रमण्डलाकारं दृश्यते इत्यर्थः, तथा 'सत्तुजणविणासणं' शत्रुजनविनाशनम् रिपुजनविघातकम्, पुनः कीदृशम् 'कणगरयणदंड' कनकरत्नदण्डम, कनकत्नमयो दण्डो- हस्तग्रहणयोग्यो मुष्टिर्यस्य तत्तथा, तथा 'णवमालिअपुप्फसुरहि गंधि', नवमालिकापुष्पसुरभिगन्धि तत्र नवमालिकानामकं यत्पुष्पं तद्वत् सुरभिगन्धो यस्य तत्तथा, तथा 'गाणामणिलयभत्तिचित्तं च' नानामणिलता भक्तिचित्रम्, तत्र नानामणिमय्यो लताःवल्ल्याकारचित्राणि तासां भक्तयो - विविधरचनास्ताभिः चित्रम् आश्चर्यकृत, च विशेषणसुमुच्चये, तथा 'पहोत मिसिमिसिंततिक्खधारं प्रघौतमिसिमिसेंत तीक्ष्णधारम् तत्र प्रधौता शाणोत्कशनेन निष्किट्टीकृता अतएव 'मिसिमिसेंतत्ति' दीप्यमाना तीक्ष्णा धारा यस्य तत्तथा एतादृशं विशेषणविशिष्टम् 'दिव्वं खग्गरयणं' दिव्यं खड्गरत्नम् खगजातिप्रधानम् उत्तमखगम् 'लोगे अणोवमाण' लोकेऽनु खगरत्न का वर्णन-( कुवलयदलसामलं रयणिकरमंडलानभं ) घोड़ा पर सबार होकर सुषेण सेनापति नरपति के हाथ से असिरत्न को लेकर जहां पर आपातकिरात थे वहां पर आया ऐसा यहां पर सम्बन्ध लगा लेना चाहिए-जिस सिरत्न को सुषेण सेनापति ने नरपति के हाथ से लिया वह असिरत्न नीलोत्पलके दलके जैसा श्यामलथा तथा जब वह घुमाया जाता था तो अपने अतुलित तेज से उसका आकार चन्द्रमण्डल के जैसा हो जाता था ( सत्तुजणविणासणं) यह असिरत्नशत्रुजन का विघात करने वाला था । (कणगरयणदंडं) इसकी मूठ कनकरत्नकी बनी हुई थी (णवमालिय पुप्फसुरहि गंधो) नवमालिकापुप्प के ऐसी इसकी दुरभी गन्ध थी ( णाणामणिलयभत्तिचित्तं च ) इसके अनेक मणियों से निर्मित लताओं के चित्र बने हुए थे। उनसे यह आश्चर्य चकित कर देता था ( पहोत मिप्तिमिसितं तिक्खधारं) इसकी धार शाण पर चढाई जाने के कारण बहुत हो तीक्ष्ण थी और चमचमाती थी। क्योंकि शाण की रगड से किट्टिमा उतर गई थी । ऐसा ( दिवं खग्गरयणं ) वह दिव्य असिरत्न था ( लोगे ખડૂગરત્નનું વર્ણન– (कुचलयदलसामलं रर्याणकरमंडलनिभ) धे।। ३५२ सपा२ ५७ ने सुषेण सेनापति પતિના હાથમાંથી અસિનને લઈને જ્યાં આપાતકિરાતા હતા ત્યાં અભ્યા. અત્રે અને સંબંધ જાણી લેવા જોઈએ. જે અસિનને સુષેણ સેનાપતિએ નરપતિના હાથમાંથી લીધું તે અસિરત્ન નીલેપલદલના જેવું શ્યામ હતું તેમજ જ્યારે તે ફેરવવામાં આવતેં' त्यात पोताना तुलित तथा ते यद्रमसना मानी म दासतु तु. (सत्तुजणविणासणं) से मसिन शत्रुधन विधात. (कणगरयणदंड) अनी भु ४२त्ननी मनटी इती. (णवमालियपुप्फसुरहिगंधि) नवमदिखाना ५०५२वी मनी-सुरनिसुवास इती. (णाणामणिलयभत्तिचित्त च) मा भने माथी निर्मित ताना त्रिी मनसा तi. मेथी से सबने माश्चय यति ४२तु तु. (पहोत भिसिभिसितं तिक्त છે એની ધાર શાણ ઉપર તેજ કરવામાં આવી હતી એથી એ ઘણી તીક્ષણ અને मार ता. म शानी २४थी म सा / ता. मे (दिव्वं खग्गरयणं) જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy