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प्रकाशिका टीका सू० १० भरतक्षेत्रस्वरूपनिरूपणम्
आत्वात् एवम् 'उदीण दाहिणवित्थिणे' उदीचीन दक्षिणविस्तीर्णम् उत्तर-दक्षिणदिशो विस्तारयुक्तम्, तदेव संस्थानतो वर्णयति- 'उत्तरओ' उत्तरतः - उत्तरस्यां दिशि 'पलियं संठाणसंठिए '
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पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितं=पर्यङ्काकारसंस्थितम्, 'दाहिणओ ' दक्षिणतः - दक्षिणस्यां दिशि 'घणुपि संठीए' धनुष्पृष्ठ संस्थितं - धनुषः पृष्ठ पाश्चात्यभागस्तस्येव संस्थितं - संस्थानं यस्य यद्वा-धनुषः पृष्ठमिव संस्थितं यत् तत्तथा, तथा 'तिधा' त्रिधा - त्रिभिः प्रकारै स्पृष्टं - पूर्वकोटया 'लवणसमुद्दे' पूर्व लवण समुद्र, धनुष्पृटेन दक्षिणलवण समुद्रम् अपरकोटचा पश्चिमलवणसमुद्रं, 'पुट्ठे, प्राप्तम् । इह धातूनामनेकार्थत्वात् स्पृशेः प्राप्त्यर्थः, कत्तरिक्तः तेन कर्मणि द्वितीया । तथा 'गंगासिंधुहिं' गासिन्धुभ्यां 'महाणईहि' महानदीभ्यां 'वेपडूढेण य'वैताढ येन च ' पच्चएण' पर्वतेन' छन्भागपविभत्ते' षड्भागप्रविभक्तं - पभिर्भागैः प्रविभक्तं
मौजूद हैं; ऐसा यह भरत क्षेत्र है, यह भात क्षेत्र पूर्वसे पश्चिम तक लम्बा है, और "उदीणदाहिणवित्थिपणे" उत्तर से दक्षिणतक चौडा है । 'उत्तरओ" यह भरतक्षेत्र उत्तरदिशा में "पलियंक संठाणसंठिए" पलंग का जैसा संस्थान- आकार होता है वैसे आकार वाला है. "दाहिणओ घणुपिट्ठसंठिए " दक्षिण दिशा में धनुषपृष्ठ का जैसा संस्थान होता है वैसे संस्थान वाला हो गया है. यह "तिघा लवणसमुदं पुट्टे" भरत क्षेत्र तीन प्रकार से लवण समुद्र को छू रहा हैं- पूर्वकोटि से पूर्वलवण समुद्र को, धनुष्पृष्ठ से दक्षिण लबण समुद्र को और अपर कोटि से पश्चिमलवण समुद्र को । इस तरह से यह तीन प्रकार से लबणसमुद्र को छू रहा है “गंगा सिंधूहिं महाणईहिं वेअड्ढेण य फवरण छन्भागपविभत्ते जंबुद्दीव दंव णयउ सयभागे पंच छवोसे जोयणसए छच्च एगूणवीसइमाए जोयणस्स विक्खंभेग" यह भरत क्षेत्र गंगा और सिन्धु इन दो महानदियों से और विजयार्ध पर्वत से विभक्त हुआ ६ खड़ों
કઠારતા જયાં વિદ્યમાન છે. એવે આ પ્રદેશ છે. આ ભરતક્ષેત્ર પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી લાંબુ छे. मने "उदोणदाहिणवित्थिण्णे" उत्तरथी दृक्षिण सुधी होतु ं छे. “उत्तरओ" मा भरत क्षेत्र उत्तर द्विशाभां "पलिअंकसं ठाणसंठिए" पसंग नेवु संस्थान (भाडा२) होय छे वा मारवाड़ छे "दाहिणओ धणुपिट्ट सठिए: ' दृक्षिण दिशामा धनुष पृष्ठनु मेषु संस्थान होय छे तेवा संस्थानवायुं थ ग छे. आ "तिधा लवणसमुद्दे पुढे " ભરતક્ષેત્ર ત્રણ રીતે લવણ સમુદ્રને સ્પશી રહ્યું છે. પૂર્વી કેટથી પૂ લવણ સમુદ્રને ધનુ. પૃષ્ઠથી દક્ષિણ લવણ સમુદ્રને અને અપરકેટિથી પશ્ચિમ લવણ સમુદ્રને આ સ્પશી રહ્યું हे ग्राम यात्रा जानुमेथी सव! समुद्रने स्पशी रधुं छे. "गंगा सिधूहि महाहवे अड्ढेण य परवपण छन्भागपविभत्ते जंबुद्दीचदोव णउय सय भागे पंच छब्बो से जोयणसए छच्च पगूणबीस भाप जोयणस्स विक्खंभेण " मा लस्तक्षेत्र गंगा याने सिंधु से બન્ને મહાનદીએથી અને વિજયા પ`તથી વિભક્ત થઈને છ ખડાથી યુક્ત થઈ ગયેલ
જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર