SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 661
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका तृ. वक्षस्कारः सू० ११ सिन्धुदेवीसाधननिरूपणम् ६४९ पौषधशालायां पौषधिकः-पौषधवतवान् अतएव 'बंभयारी' ब्रह्मचारी 'जाव दब्भसं. थारोवगए' यावदर्भसंस्तारकोपगतः साईद्वयहस्तपरिमितदर्भासने उपविष्टः सन् अत्र यावत्पदात् उन्मुक्तमणिसुवर्ण इत्यादि सर्व पूर्वोक्तं ग्राह्यम् अष्टमभक्तिकः-कृताष्टमतपाः सिन्धुदेवीं मनसि कुर्वन् तिष्ठति । 'तएणं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तसि परिणममाणसि सिधूए देवीए आसनं चलइ' ततः खलु तस्य भरतस्य राज्ञोऽष्टमभक्ते परिणमतिपरिपूर्णप्राये जाते संगच्छति सति सिन्ध्या देच्या आसनं सिंहासनं चलति 'तएणं सा सिंधु देवी आसणं चलियं पासई ततः खलु सा सिन्धुदेवी आसनं-स्वसिंहासनं चलितं पश्यति 'पासिता' दृष्ट्वा 'ओहिं पउंजई' अवधिं प्रयुक्त-अवधिना ज्ञानेन पश्यति 'पउंजित्ता' प्रयुज्य 'भरहं रायं ओहिणा आभोएइ' भरतं राजानम् अवधिना अवधिज्ञानेन, अभोगयति उपयुङ्क्ते जानातीत्यर्थः 'आभोइत्ता' आभोग्य उपयुज्य ज्ञात्वा तस्याः सिन्धुदेव्याः 'इमे एयारूवे अज्झथिए चिंतिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था' अयमेतद्रूपो वक्ष्यमाणस्वरूपः, आध्यात्मिकः आत्मगत अङ्कुर वाला अतएव ब्रह्मचारी भरत चकी २॥ हाथ प्रमाण दर्भापन पर पूर्वोक्त मणिसुवर्ण दि सबका परित्याग करके बैठ गया, और सिन्धु देवो का मनमें ध्यान करने लगा । (तएणं तस्स भरहस्स रण्णो अटुममतंसि परिणममाणसि सिधूए देवीए आसणं चलइ) जव उस भरत राजा की अद्रुम भक्तकी तपस्या पूरी होने को आई कि उसी समय सिन्धु देवी का आसन कंपायमान हुआ। (तएणं सा सिंधु देवी आसणं चलियं पासइ) सिन्धु देवीने ज्यों ही कंपित हुए अपने आसन को देखा तो (पासित्ता ओहिं पउंजइ) उसी समय उसने अपने अवधि ज्ञान को जोड़ा-अर्थात् अवधिज्ञान का प्रयोग किया (पउंजित्ता भरहं रायं ओहिणा आभोएइ) अवधिज्ञान का प्रयोग करके उसने उसके द्वारा भरत राजा को देखा (आभोइत्ता इमेएयायवे अज्झथिएचिंतिए कप्पिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था)राजा को देखकर उसे आध्यात्मिक चितितकल्पितप्रार्थितमनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ। संकल्प के इन विशेषणों की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। इन विशेषणों का तात्पर्यार्थ ऐसा हैपोसहिए बंभयारी जाव दभसंथारोवगए अट्टमभतिए सिंधुदेवि मणसि करेमाणे चिट्टइ) ત્રણ ઉપવાસ લઈને તે પૌષધ વ્રતવાળે એથી બ્રહ્મચારી ભરતચક્રી અઢી હાથ પ્રમાણ દભસન ઉપર પૂર્વોક્ત મણિ સુવર્ણાદિ સર્વને પરિત્યાગ કરીને બેસી ગયો અને સિધુ દેવીનું भनमा ध्यान ३२॥ साये. (तएणं तस्स भरहस्स रणो अट्ठमभतंसि परिणममाणंसि सिंधूए देवीए आसणं चलइ) या तलरत २०नी मम लातनी तपस्या समास था भावी ते४ समये सिन्धु वानुमासन पायभान ययुः (तएणं सा सिन्धु देवी आसणं चलिय पासइ) सिंधु देवाः न्यारे पोतानु आसन #पित तुयु । (पासित्ता ओहिं पउंजइ) तरततो पाताना अवधिज्ञान युटतणे पोताना अवधिशानने प्रयास . (पउंजित्ता भरहं रायं ओहिणा आभोएइ) अवधिज्ञाननी प्रयोगशत तथे तेना 43 लरतनने यो. (आभोइत्ता इमे एयारूवे अज्झथिए चिंतिए कप्पिए पत्थिए मगोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था) ने तन मनमा मायात्मि, यितित, प्रार्थित ८२ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy