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________________ ५६२ ___जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मयं कडुच्छुकं प्रगृह्य प्रयतो धूपं दहति, तत्र वैडूर्यमयं वैडूर्यरत्नघटितम्, कडुच्छुकंधृपाधानकपात्रं प्रगृह्य गृहोत्या (प्रयतः) आद्रियमाणो धूपं दहति (दहेत्ता) दग्ध्या (सत्तटुपयाई पच्चोसक्कइ) सप्ताष्टपदानि प्रत्ययष्यष्कति परावर्त्तते, तत्र धूपं दग्ध्या प्रमार्जनादि हेतु विशेषेण सन्निधीयमानचक्ररत्ने अत्यासन्नतया मत्कृताशातना माभूयादित्यभिप्रायेण स राजा सप्ताष्टपदानि प्रत्यपसर्पति पश्चादपसरति इत्यर्थः (पच्चोसक्कित्ता) प्रत्यवष्यष्क्य परावर्त्य (वामं जाणु अंचेइ जाय पणामं करेइ) वामं जानुम् अञ्चति यावत् प्रणामं करोति, तत्र वाम जानुम् अञ्चति आकुश्चयति ऊवं करोति यावत्करणात् (दाहिणं जाणुं धरणियलंसि निहटु करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलिं) इति संग्रहः, दक्षिणं जानुं धरणी तले निहत्य करतल परिगृहीतं दशनखं शिरसावत्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा प्रणामं करोति मनोऽभीष्टार्थ सिद्धिदायकमिदमितिबुद्धया प्रीतः सन् प्रणमतीत्यर्थः (करेत्ता) प्रणामं कृत्वा (आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ) आयुधगृहशालातः प्रतिनिष्क्रामति निर्गच्छति (पडिणिक्खधूप जलाया । (दहेत्ता सत्तटुपयाई पच्चोसक्कइ ) धूप जलाकर फिर वह वहां से सात आठ पग पीछे लौटा अर्थात् मेरे द्वारा किसी भी प्रकार से चक्ररत्न की अशातना न हो जाये इस ख्याल से यह धूप जलाकर पीछे वहां से सात आठ पैर दूर हो गया (पच्चोसक्कित्ता वामं जाणु अंचेइ) वहां से ७-८ पैर दूर हो कर उसने अपनी बाइ जानु को ऊपर उठाया (जाय पण्णाम करेई ) यायत् प्रणाम किया यहाँ यावत्पदसे (दाहिणी जाणुं धरणियलंसि निहटु करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं) इस पाठ का संग्रह हुआ है इस पाठका तात्पर्य ऐसा है कि जब उसने अपनी बाइ जानु को ऊपर की ओर उठाया-तब उसने अपनी दाहिनी जानु को- भूतल पर रखा और दशों नख अंगुलियों के परस्पर में मिल जायें इस ढंग से अंजलिबना कर और उसे दाहिनी ओर से बाई और तक मस्तक के ऊपर से तीन बार धुमाकर प्रणामकिया (करेत्ता)प्रणाम करके (आउहधरसालाओ पडिणिक्खमइ) फिर यह आयुध शाला से बाहर निकला (पडिणिखमित्ता जेणेव पाहिरिया उपट्ठाणसाला रमाथी धूपनी श्रेणी में। (विणिम्मुयंत) नीजी २३ छ मेवा (वेरुलियमयं कडच्छूयं पागहेत्त) वैश्य भलिनिमित धूपहन पात्र हामी सधने (पयत्ते) महु सावधानी पू५४ तेभर माह पूर्व तेणे (धुवं दहइ) धूपने तमा समाव्ये। (दहेत्ता सात?पयाई पच्चोसक्कइ) ધૂ૫ સળગાવીને પછિ તે ત્યાંથી સાત-આઠ પગલાં પાછા ફર્યો, એટલે કે મારા વડે કે પણ રીતે ચક્રરત્નની અશાતના ન થાય એ વિચારથી તે ધૂપ સળગાવીને પછી સાત-આઠ ५vi त्यांथा १२ सी गया.(पच्चोसक्कित्ता वामं जाणु अंचेइ) त्यांथी सात-08 Ani पाछ। भसीन तणे पाताना 3100 धूटने ५२ व्या (जाब पणामं करेइ) यावत् प्रणाम यां, सड़ी यावत् ५था (दाहिणं जाणु धरणियलंसि निहटूटु करयल परिहियं दसनहं सिरसावत्त मत्थए अंजलि) ॥ ५४न। सह थये। छे. सानु तात्५५ प्रभारी જ્યારે તેણે પોતાના ડાબા ઘૂંટણને ઉપર ઉઠાવ્યા ત્યારે તેણે પિતાના જમણું ઘૂ ટયુને પૃથ્વી ઉપર મૂક્યો અને આંગળીએાના દશ દશ નખે પરસ્પર સમ્મિલિત કરીને પછી જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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