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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. ६० सुषमदुष्षमाकालनिरूपणम् म्यमिलापवर्जा' इति भावः । ततश्च ऋषभस्वामिनोऽभिलापं वर्जयित्वा भद्रकृन्नामकस्य तीर्थङ्करस्याभिलापो वक्तव्य इत्यभिप्रायः। अत्रेदं बोध्यम्-उत्सर्पिण्यां चतुर्विशति तमतीर्थकृतोऽभिलापोऽवसर्पिण्यां संजातस्य प्रथमतीर्थकरस्य सदृशः प्रायस्त्वं भद्र कृत्तीर्थकरवण ने कलाधुपदेशाभिलापाभावेन बोध्यमिति । अत्र कुलकरविषये वाचनाभेदमाह - 'अण्णे पहंति' इत्यादि । (अण्णे पढ़ति) अन्य पठन्ति-अपरे आचार्या एवं पाठभेद वदन्ति, तथाहि-(तोसे णं समाए पढमे तिभाए इमे पण्णरस कुलगरा -मुप्पज्जिस्संति, तं जहा सुमई जाव उसमे, सेसं तं चेव) तस्यां खलु समायां प्रथमे त्रिभागे इमे पञ्चदश कुलकराः समुत्पत्स्यप्ते, तद्यथा-सुमतिविदृषभः, शेषं तदेव । अयमिहाभिप्रायः केषां चिन्मते उत्सर्पिणीसम्बन्धिसुषमदुप्पमायाः प्रथमे त्रिमागे सुमतिमारभ्य ऋषभपर्यन्ताः संबंधी अभिलाप है. सो इस अभिलाप को छोड कर भद्रकृत् नामके तीर्थकर का अभिलाप कहना । इस कथन का तत्पर्य ऐसा है कि उत्सर्पिणी के २४ वे तीर्थकर का अभिलाप प्राप्त करके अवसर्पिणी में उत्पन्न हुए प्रथम तीर्थकर के जैसा ही कहना चाहिये. क्यों कि इन दोनों में प्रायः करके समान शोलता है । अभिलाप की प्रायः समानता है ऐसा जो कहा गया है वह भद्रकृत तीर्थकर के वर्णन में कलादिक के उपदेश के अभिलाप के अभाव से कहा गया है ऐसा जानना चाहिये. यहां कुलकर के विषयमें जो वाचनाभेद है उसे सूत्रकार "अण्णे पढंति " इस सूत्र द्वारा प्रकट करते हैं -- इसमें उन्होंने यह समझाया है कि कितनेक आचार्य ऐसा पाठ भेद कहते हैं -- (तीसे णं समाए पढमेतिभाए इमे पण्णरसकुलगरा समुपज्जिस्संति तं जहा सुमई जाव उसमे सेसं तंचेव) उत्सर्पिणो सम्बन्धी सुषमदुष्षमा के प्रथम विभाग में ये १५ कुलकर उत्पन्न होंगे जैसे सुमति यावत् ऋषभ अर्थात् प्रथम सुमति कुलकर और अन्तिम ऋषभ कुलकर बाको के जो १३ मध्यके ओर कुलकर हैं उनका नाम पूर्व में प्रकट हो करदिया गया है तथा इन १५ कुलकरों में से ५-५ कुलकरों द्वारा जो जो दण्डनीती चालू की जाती है समे. अथवा 'ऋषभस्वामीबर्जा' ने। अलिप्राय *षमस्वामी समधी अभिताय छे, तो એ અભિલાપને બાદ કરીને ભદ્રકૃત નામક તીર્થકરને અભિલાપ કહે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ઉત્સર્પિણીના ૨૪ મા તીર્થંકરનો અભિલાષ પ્રાપ્ત કરીને અવસર્પિણીમાં ઉત્પન્ન થયેલ પ્રથમ તીર્થંકરના જે જ અભિલાપ કહેવું જોઈએ. કારણ કે એ બન્નેમાં ઘણું કરીને સમાનશીલતા છે, અભિલાપન પ્રાયઃ સમાનતા છે આમ જે કહેવામાં આવેલ છે, તે ભદ્રકૃત તીર્થકરના વર્ણનમાં કલાદિકના ઉપદેશના અભિલાષના અભાવથી કહેવામાં આવેલ છે. એવું સમજવું જાઈએ. અહીં કુલકરના સંબંધમાં જે વાચના ભેદ છે, તેને सत्र २ "अण्णे पदति” से सूत्र पडे ५४८ ४२ छे. तेभरे माम समा०युछ डेटा माया । लेने से५ ४२-(तीसे णं समाए पढमेतिभाए इमे पण्णरस कुलगरा समजिस्संति तं जहा सुमई जाव उसमे सेसं तं चेव) ७२ सिधा सुषमपमाना પ્રથમત્રિભામાં એ ૧૫ કુલકર ઉત્પન થશે. જેમ કે સુમતિ યાવતું ષભ સ્વામી એટલે કે પ્રથમ સુમતિ કુલકર અને અંતિમ ઋષભસ્વામી કુલકર શેષ જે ૧૩ મધ્યના બીજા કુલકરે છે, જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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