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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. ५९ दुष्षमसुषमासमा निरूपणम् ४९९ संहननं शरीरास्थिरचना भविष्यति, (छव्चिह) षइविधं षटप्रकारकम् (संठाणं) संस्थानम् आकारो भविष्यति, तथा ते मनुजाः (बहुईओ रयणीओ) बह्वीः रत्नीः (उड्ढं उच्चतेणं) ऊर्ध्वमुच्चत्वेन भविष्यति, तथा (जहणेणं) जघन्येन (अंतोमुहत्तं) अन्तर्मुहर्तम् (उक्कोसेणं) उत्कर्षेण (साइरेगं वासस) सातिरेक वर्षशतं किञ्चिदधिक वर्षशतम् (आउयं) आयुष्कं जीवितकालं (पालेहिति) पालयिष्यन्ति, (पालित्ता) पालयित्वा (अप्पेगइया) अप्येकके केचित् (णिरयगामी) निरयगामिन नारका (जाव) यावत्-यावत्पदेन-अप्येकके तिर्यग्गामिनः अप्येकके मनुष्यगामिन इति संग्राह्यम्, तथा-(अप्पेगइया देवगामी) अप्येकके देवगामिनो भविष्यन्ति, परन्तु तत्र काले संजाता मनुष्याः (ण सिझंति) न सिध्यन्ति सिद्धिगतिगामिनो न भवन्तीति ॥ सू० ५८ ॥ अथ दुप्पमसुषमां समां वर्णयति-- मूलम्-तीसेणं समाए एक्कवोसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते अणंतेहिं वण्णपज्जवहिं जाव परिवड्ढेमाणे २ एत्थ णं दूसमसुसमा णाम समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ ? । गोयमा । बहुसमरमणिज्जे जाव अकित्तिमेहिं चेव । तेसि णं भंते ! मणआणं केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! तेसिणं मणुयाणं छविहे संघ यणे, छविहे संठाणे, बहुई धणूई उद्धं उच्चत्तेणं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं ६ प्रकार का तो संहनन होगा, ६ प्रकार का संस्थान होगा और शरीर की ऊँचाई अनेक हस्त प्रमाण होगी. (जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं साइरेगं वापसयं आउयं पालेहिंति) इनकी आयु का प्रमाण जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट कुछ अधिक १०० वर्ष का होगा (पलित्ता अप्पेगइया णिस्यगामी, जाव अप्पेगइया देवगामी) आयु की समाधि के अनन्तर कितनेक तो इनमें से नरकगति में जावेंगे यावत् कितनेक तिर्यग्गति में जावेंगे, कितनेक मनुष्यगति में जावेंगे और कितनेक देवगति में जावेंगे परन्तु (न सिझति) सिद्धगति में कोई नहीं जावेगा ।सू०५८॥ હે ગૌતમ! તે મનુષ્યને ૬ પ્રકારનું તે સંહનન થશે, ૬ પ્રકારનું સંસ્થાન થશે અને શરીરની अयाने हस्त प्रभारी शे (जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेण साइरेगं वाससयं आउयं पालेहिति) मेमनी मायुध्यनु प्रभाए धन्यथा ये अतभुतनु भने Sex पधारे १०० वर्ष २८ . (पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, जाव अप्पेगइया देवगामी) मायुष्यनी समाप्ति ५७ 32ai तो मेमनामांथी न२४ गतिमाशे यावत કેટલાક તિર્યંન્વ ગતિમાં જ, કેટલાક મનુષ્ય ગતિમાં જશે અને કેટલાક દેવગતિમાં જશે ५ (न सिझंति) सिद्धमति भजपी शश नाह. ॥ ५८ ॥ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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