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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. ५६ अवसपपिणी दुष्पमारक वैशिष्य निरूपणम् ४९३ नम् । ननु अमृतमेघन वनस्पतौ जनिते सति वर्णादिसहितस्यैव वनस्पतेरुपलभ्यमानत्वेन वर्णादि सह भाविनो रसस्यापि सुतरामुत्पत्तौ रसमेवो निष्प्रयोजन: ?, इति चेदाह-ययप्यमृत मेघेन सामान्परस उत्पाद्यते तथापि स्वस्वयोग्यरसनिष्पादनं रसमेघस्यैवेति न ककश्चिदोष इति । इत्थं पञ्च भिर्मेधै स्वस्वकार्ये संपादिते सति यादृशं भरतवर्षस्वरूपं भावि तदुच्यते-तएणं, इत्यादि । (तए णं) ततः खलु (भरहे वासे) भरतं वर्ष पउढ-रुक्खगुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्वग-हरित-ओसहिए) प्ररूढ वृक्ष-गुच्छ-गुल्म लतावल्लो तृण पर्वग-हरितौ-पधिकं प्ररूढाः समुत्पन्नाः वृक्षगुच्छादिहरितोषध्यन्ता यत्र तत्तादृशं (भविस्सइ) भविष्यति, तथा-(उवचिय तयपत-पवालं-कुर-पुप्फ-फल-समुप्रयोजन वृक्षादि को उत्पादन करना है. और पांचवां जो रसमेघ है उसका प्रयोजन वृक्षादिकों में यथायोग्य रस का उत्पन्न करना है । शंका-जब अमृत मेघ से ही भरतक्षेत्र की भूमि में वनस्पति का उत्पादन हो जाता है तो वर्णादि सहित ही उनका उत्पादन होता है. वर्णादि रहित रूप में तो उनका उत्पादन होता नहीं है। फिर जब वर्णादि सहित हो उनका उत्पादन होता है तो वर्णादि सहभावों जो रस है वह तो उनमें अपने आप हो उत्पन्न हो जाता होगा फिर रस को उत्पन्न करने वाला रस महामेघ का मानना निष्प्रयोजन प्रतीत होता है- सो ऐसी शंका ठीक नहीं है क्योंकि स्व स्व योग्य रस का निष्पादन करना हो इस रस महामेघ का काम है वैसे तो अमृत मेघ से सामान्यतः रस उत्पन्न करा हो दिया जाता है । इस तरह से इन पांच मेघों द्वारा अपना अपना कार्य संपादित हो जाने पर जैसा भारत वर्ष का आगे स्वरूप हो जाता है अब सूत्रकार उसीका कथन करते हैं- (तएणं भरहे वासे पउढ रुक्ख-गुच्छ—गुम्म-लय-वल्लि-तणपव्वग-हरित-ओसहिए भविस्सइ) इसके बाद भरतक्षेत्र जिसमें वृक्ष से लेकर हरित औषधि तक વૃક્ષાદિકાના ઉત્પત્તિ કરવી છે, અને પાંચમે જે રસમેઘ છે, તેનું પ્રયોજન વૃક્ષાદિકમાં થગ્ય રસોત્પત્તિ ક શંકા-જયારે અમૃત મેઘથી જ ભરત ક્ષેત્રની ભૂમિમાં વનસ્પતિનું ઉત્પાદન થઈ જાય છે વનસ્પતિ વર્ણાદિ સહિતજ ઉત્પન્ન થાય છે વર્ણાદિ રહિતરૂપમાં વનસ્પતિનું ઉત્પાદન થતું નથી વર્ણાદિ સહિત જ જ્યારે તેમનું ઉત્પાદન થાય છે તે વર્ણાદિ સહભાવો જે રસ છે તે પણ તેમનામાં આપ મેળે જ ઉત્પન્ન થશે જ તે એ પરિસ્થિતિમાં રસને ઉત્પન્ન કરનારા રસ મહામેઘનું કથન અહીં નિષ્ણજન પ્રતીત થાય છે એવી શંકા પણ અહીં યોગ્ય નથી. કેમકે સ્વ-સ્વ રસનું નિષ્પાદન કરવું એ જ એ રસમહામેઘનું કામ છે, આમ તે અમૃત મેઘથી જ સામાન્યતઃ રસ ઉત્પન્ન કરાવવામાં આવે જ છે. આ પ્રમાણે આ પાંચે મેઘો વડે પોત પોતાના કાર્ય સંપાદિત થઈ ગયા પછી ભરતર્ષનું સ્વરૂપ કેવું હશે ? એ સંબંધમાં સૂત્રકાર કહે छ- (ताण भरहे वासे परूढरुक्ख-गुच्छ गुम्म लय-बल्लि-तण-पव्वग-हरितओसहिए भविस्सइ) त्या२ मा भने वृक्षथी भांडीनरत औषधी सुधी 41१५तिमी 64-1 / युही छ मे लरतक्षेत्र १५ थ/ a मा (उवचिय-तय पत्त-पवालं-कुर-पुप्फ-फल જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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