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________________ प्रकाशिका टीका सू. ५ पद्मवरवेदिकायाः बहिर्भागस्थवनषण्डवर्णनम् अथ जगत्या उपरि पद्मवरवेदिकाया बहिर्यदस्ति तदाह ---- मूलम् -तीसेणं जगईए उप्पि बाहिं पउमवरवेइयाए एत्थ णं महं एगे वणसंडे पण्णत्ते देसूणाई दो जोयणाई विक्खंभेण जगईसमए परिक्खेवेणं वणसंडवण्णओ णेयव्वो ॥सू०५॥ छाया- तस्या खलु जगत्या उपरि बहिः पद्मवरवेदिकायाः अत्र खलु महानेको वनषण्डः प्रज्ञप्तः, देशोने द्वे योजने विष्कम्मेण जगती समकः परिक्षेपेण वनषण्डवर्णको नेतव्यः ॥सू०५॥ टीका---'तीसेणं जगईए' इत्यादि 'तीसे णं जगईए' तस्याः पूर्वोक्तायाः खलुजगत्याः 'उप्पिं बाहि पउमवरवेइयाए' उपरि ऊर्ध्वभागे पद्मवरवेदिकायाः प्राग्वर्णि ताया देव भोगभूमि विशेषरूपायाः बहिः परतः 'एत्थ णं महं एगे वणसंडे पण्णत्ते' अत्र अस्मिन् प्रदेशे खलु एको महान् बृहत् वनषण्ड:- अनेकविधवृक्षसमूहः प्रज्ञप्तः । स च वनषण्डः कीदृशः ? – इत्याह-'देवणाई दो जोयणाई विक्खंभेणं' देशोने देशतो न्यूने द्वे योजने विष्कम्भेण-विस्तारेण प्रज्ञप्तः देशश्चात्र सार्धधनु शतद्वयरूपो बोध्यः तथाहि चतुर्योजनविस्तृतशिरस्काया जगत्या बहुमध्यभागे पश्वधनुः शतव्यासा धारण करके सूत्रकार ने" एवंजहा जीवाभिगमे जाव अट्ठो जाव धुवा, णियया, सासया, जाव णिच्चा" ऐसा सूत्र पाठ कहा है ॥४॥ जगती के ऊपर वर्तमान पद्मवर वेदिका के बाहर विद्यमान बनषण्ड का वर्णन"तीसेणं जगईए उप्पिं बाहि" इत्यादि। उस जगती के ऊपर जो पद्मवरवेदिका है उस पद्मवरवेदिका के बाहर " एत्थ णं महं एगे वणसंडे पण्णत्ते ” एक वहुत विशाल वन। ण्ड है-अनेक प्रकार के वृक्षों का समूह है “ देसूणाई दो जोयणाई विक्खंभेणं " इस का विष्कम्भ - विस्तार- कुछ कम दो योजन का है यहां देश से २५० धनुष लिया गया है इसका विचार इस तरह से करना चाहिये जगती के मध्यभाग में १२वाम मावी नथी से अभिप्राय ने सूत्रधारेश्यमा पा२५ प्रशन एवं जहा जीवाभिगमे जाष अहो जाव धुवा णियया सासया जाव णिच्चा', मेव। सूत्रा8 सा छे. ॥४॥ જગતીની ઉપર વિદ્યમાન પદ્મવરદિકાની બહાર વર્તમાન વનપંડનું વર્ણન – 'तीसेण जगईए उप्पिं बाहिं' इत्यादि सूत्र ॥५॥ मा तिनी 3५२२ ५५१२वहि छ ५१२वहिनी १९२ "एत्थण महं एगे वणसंडे पण्णने" मे पहुन विशाण वनम' छे. मने प्रा२न। वृक्षसभू। छ. "देसूणाई दो जोयणाई विक्खमेण" माने। विन-विस्ता२-४४४ २१६५ मे योन से छे. पही દેશથી ૨૫૦ ધનુષ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ સંબંધમાં આ પ્રમાણે વિચાર કરે જોઈએ. જગતીના આ શિખરનો વિસ્તાર ચાર જન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે. આ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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