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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. ५२ चतुर्थारकस्वरूपनिरूपणम् गौतम ! तस्य (बहुसमरमणिज्जे) बहुसमरमाणीयः अत्यन्तसमतलोऽत एव रमणीयः सुन्दरः (भूमिभागे) भूमिभागः भूमिप्रदेशः (पण्णत्ते) प्रज्ञप्तः स कीदृशः इत्याह- 'से' सः (जहाणाC) यथानामक: (आलिंगपुक्खर वा) आलिङ्गपुष्करमिति वा आलिङ्गः- मुरजो वाद्यविशेषः तस्य पुष्करं - चर्मपुटं तदत्यन्तसमतलं भवतीति तत्तुल्यसमतलत्वात् तदेवइतिशब्दो हि सादृश्यार्थकः, वा शब्दः समुच्चयार्थकः, एवमग्रेपि (जाव) यावत् - यावत्पदेन - " मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइव वा, करतलेइ वा, चंदमंडलेइ वा, सूरमंडलेइ या आसमंडलेइ वा उरब्भचम्मेइ वा, उसभचम्मेइ वा, वराहचम्मेइ वा, सीहचम्मेइव वा, ४४३ मेवा, मिगच मे वा, छगलचम्मेइ वा, दीवियचम्मेइ वा, अणेगसंकुकी लगसहस्सवितह णाणाविह पंचवणेहिं" इति संग्राह्यम्, तच्छाया - "मृदङ्गपुष्करमिति वा, सरस्तलमिति वा, चन्द्रमण्डलमिति वा, सूरमण्डलमिति आदर्शमण्डलमिति वा, उरभ्रचर्मेतिवा, वृषभचर्मेति वा वराहचर्मेतिवा, सिंह चर्मेति वा, व्याघ्रचर्मेति वा, मृगचर्मेति वा छगलचर्मेति वा द्वीपिकचर्मेति वा, अनेकशङ्कुकीलकसहस्रविततः नानाविधपञ्चवर्णैः" इति एतद्व्याख्या राजप्रीयत्रस्य पञ्चदशसूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकातो बोध्या, (मणोर्हि) मणिभिः (उवसोभोयरे पण्णत्ते" हे भदन्त् ! इस चतुर्थकाल में भरत क्षेत्र का स्वरूप कैसा कहा गया है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं - "गोयमा ! बहुसर मणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाम अलिंगपुक्रेइवा जाव मणीहि उवसोभिए" हे गौतम! उस चतुर्थ काल में इस भारतक्षेत्र की भूमि अत्यन्त समतल वाली थी अत एव वह रमणीय - सुन्दर थी वह ऐसी समतल वाली था कि जैसा मुरज मृदंग नामक वाद्य विशेष का चर्मपुट समतल वाला होता है. यहां इति शब्द सार्थक है और वा शब्द समुच्चयार्थक है यहां पर यावत् शब्द से - ' मुङ्गपुक्लरेइवा, सरतले इवा, करतलेइवा, चंद मंडलेइवा, सूरमंडलेइवा, आर्यसमण्डलेइवा, उरम्भचम्मेइवा, उसम चम्मैइया, वराहचम्मेइव, सीहचम्मेइवा, चग्गचम्मेईवा, मिगचम्मेइवा, छागलचम्मेइवा, दीवियचम्चा, अगसंकुफीलग सहस्सवितए णाणाविह पंचवण्णेहिं" इस पाठ का ग्रहण हुआ है। इस पाठ के पदों की व्याख्या राजप्रश्नीय सूत्र के १५वें सूत्र की सुबोधिनी टीका से जान लेना ક્ષેત્રના સ્વરૂપ વિષે શું કહેવામાં આવ્યું છે ? તે। આ પ્રશ્નના જવાખમાં પ્રભુ કહે છે'गोमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाय मणीहि उनसोभिए” हे गौतम, ते चतुर्थ आजमां ते लरत क्षेत्रनी लूभि अत्यंत समतल हती, એથી તે રમણીય સુ ંદર હતી, સુરજ નામક વાદ્ય વિશેષના ચ પુત્ જે પ્રમાણે સમતુલ વાળા હાય છે, તે પ્રમાણે જ તે ભૂમિ સમતલવાળી હતી. અહીં ‘શ્રૃતિ' શબ્દ સાદ્દેશ્યા ક छे अने 'पा' शब्द समुख्यार्थ छे. अहीं यावत् शब्थी "मुइंगपुक्खरे वा, सरतले वा करतले वा, चंदमंडलेइ वा, सूरमंडलेइ वा आयंसमंडलेइ वा उरब्भचम्मेइ वा, उसभषम्मे वा, वराहचम्मेइ वा, वग्धचम्मेइ वा, सीहचम्मेइ वा, मिगचम्मे वा, छागलचम्मेदवा दीवियचम्मेइवा, अणेग संकुकीलगसहस्संवितर णाणाविह पंचवìસિઁ” આ પાઠ સંગ્રહીત થયા છે. આ પાઠના પાની વ્યાખ્યા રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર’ ના સૂત્ર ન’. ૧૫ ની સુખાધિની ટીકા પરથી જાણી લેવી જોઈ એ. તે ભૂમિ અનેક પ્રકારના જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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