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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि०वक्षस्कार सू. ४१ भगवतः श्रमण्णवस्थावर्णनम् अथ भगवतः श्रमणावस्था वर्णयति टीका – 'णत्थि णं' इत्यादि । णत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे' तस्य भगवतः खलु कुत्रापि कस्मिंश्चिदपि स्थाने प्रतिबन्धः 'अयं मम अहमस्य' इति मनोभावरूपो बन्धो नास्ति = नासीदित्यर्थः । 'अयं मम अहमस्य' इति रूपश्च संसार एव । तदुक्तं - "अयं ममेति संसारो नाहं न मम निर्वृप्तिः । चतुर्भिरक्षरैर्व्वधः पञ्चभिः परमं पदम् ||" इति । 'से पडिबंधे चउव्विहे भवइ' स च प्रतिबन्धचतुर्विधो भवति, 'तं जहा - दब्यओ' तद्यथा - द्रव्यतः - द्रव्यमाश्रित्य 'खितओ' क्षेत्रतः = क्षेत्रमाश्रित्य 'कालओ' कालतः = कालमाश्रित्य, 'भावओ' भावतः = भावमाश्रित्येति । तत्र 'दव्वओ' द्रव्यतः = भगवान् की श्रमणावस्या का वर्णन “स्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थई पडिबंधे" इत्यादि । टीकार्थ — " तस्स भगवंतस्स” उन ऋषभनाथ भगवान् को " कत्थइ" कहीं पर भी “पडिबंधे" यह मेरा है, मैं इसका हूं, इस प्रकार का मानसिक विकाररूप भाव नहीं होता । क्यों कि मै इसका हू, यह मेरा है इस प्रकार का भाव ही संसार है, तदुक्तम् - अयं ममेति संसारो नाहं न मम निवृतिः " २ जह मेरा है इस प्रकार का भावही संसार है मै न इसका हूं और न यह मेरा है" इस प्रकार का जो भाव है वही संसार को निवृत्ति है, " चतुर्भिरक्षरैर्बन्धः पञ्चभिः परमं पदम् " चार अक्षरों द्वारा बन्ध होता है और पांच अक्षरों से परम पद प्राप्त होता है " अहमस्य, अयं मम" यहां चार चार अक्षर हैं इनसे जीव कर्मबन्ध का कर्त्ता होता है और "अहं अस्य न, अयं मम न" ये पांच अक्षर हैं, इनके अनुसार प्रवृत्ति करने वाले पुरुष को मुक्ति की प्राप्ति होती है, “से पडिबंधे चउब्बिहे भइ " वह प्रतिबन्ध चार प्रकार का होता है "तं जहा " जैसे - "दव्यओ " द्रव्य को आश्रित करके, " खित्तओ" क्षेत्र की आश्रित करके, "कालओ" काल को आश्रित करके और " भावओ" ભગવાનની શ્રમણાવસ્થાનું વર્ણન ' णत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थर पडिबंधे' इत्यादि ॥सूत्र ४१ ॥ टीअर्थ - " तस्स भगवंतस्स" ते ऋषलनाथ भगवानने 'कत्थर' अध पशु स्थाने 'पडि વિકારરૂપ ભાવ ઉત્પન્ન થતા. નહતા संसार छे, तहुतम् - " अयं ममेति मे भावसंसार छे. तेभ हुँ भनो संसारनी निवृति के “चतुर्भिर વધો આ મારું છે. હું એના છું આ જાતના માનસિક म हुँ मानो छुआ भारे। हे आजतना भाव संसारो नाहं न मम निर्वृतिः” आभारी छे अनेडू येना नथी मने मे भारे। नथी या जतन के भाव हे ते क्षरैर्बन्धः पञ्चभिः परमं पदम्" यार अक्षरी बड़े मन्ध थाय छे याने यांय अक्षरो पडे परम यह प्राप्त थाय छे. "अहमस्य अयं मम" अहीं यार अक्षरो छे. मेनाथी लव म मन्धने। उर्ता थाय छे. अने "अहं अस्य न, अयं मम न" से पांच अक्षरो छे से मक्षरे। भुल प्रवृत्ति ४२नार पुरुषने भुक्तिनी आप्ति थाय छे. 'से पडिवंघे चव्विहे भइ' ते प्रतिमन्धना यार प्रहार छे, 'तं जहा-' भडे 'दब्वभ' द्रव्यने आश्रित अने, 'खितओ' क्षेत्रने आश्रित उरीने "कालभ" असने याश्रित उरीने भने "भावओ" लावने माश्रित જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર ३६९
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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