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________________ प्रकाशिकाटीका द्वि० वक्षस्कार सू. ४० ऋषभस्वामिनः दीक्षितानन्तरकर्तव्यनिरूपणम् ३६५ मलरहितत्वात् सुदर्शन इत्यर्थः, 'आदिरसपडिभागे इव' आदर्श प्रतिभाग इव आदर्शदर्पणे यः 'पागड भागे' प्रतिभागः प्रतिबिम्बः स ईव प्रकटभावः प्रकट अनिगृहितः भावः अभिप्रायो यस्य स तथा, यथा दर्पणे यथास्थित मुखादेः प्रतिबिम्बः प्रतिफलितो भवति तथैव भगवान ऋषमोऽपि सर्वदाऽनिगृहिताभिप्राय आसीत्, न तु शठ इव निगूहिताभिप्राय इति भावः । तथा 'कूम्मो इव गुत्तिदिए' कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः-यथा कूमों भये समुपस्थिते चतुरश्चरणान् ग्रीवां च संगोपयति, तथैवासौ भगवान् शब्दादि भयेभ्यः सर्वदा संगोपितपञ्चेन्द्रिय आसीदित्यर्थः । तथा 'पुक्खरपत्तमिव' पुष्करपत्रमिकमलपत्रमिव 'निरुवलेवे' निरुपलेपः--उपलेपजितः, यथा कमलपत्र पङ्कजातं जले संवर्द्धितमपि जलादुपरि निर्लिप्तं तिष्ठति, तथैवासौ भगवान् भोगे समुत्पन्नः स्वजनादिषु संवद्धितोऽपि तत्स्नेहरूपलेपरहित इत्यर्थः । तथा 'गगणमिव निरालंबणे' गगनमिव निरालम्बनः यथा-गगनम् अवष्टम्भरहितं भवति तथैवासौ भगवान् कुलग्रामनगरादिनिश्रारहितोऽभूदित्यर्थः । तथा 'अनिले इव' अनिल इव-वायुरिव 'निरालए' निरालय:आलयवर्जितः, यथा वायुः सर्वत्र संचरणशीलत्वेन स्थानप्रतिबन्धशठ की तरह निगूहित अभिप्रायवाले नहीं थे। "कुम्मो इव गुत्तिदिए" कच्छप जिस प्रकार भय के उपस्थित होने पर अपने चारों चरणों को और ग्रीवा को संकुचित कर लेता है उसी प्रकार प्रभु भी शब्दादिकों में आसक्ति हो जाने के भय से सर्वदा अपनी पांचों ही इन्द्रियोंको उनके विषयों से संगोपित-सुरक्षित रखे हुए थे, "पुक्खपत्तमिव निरुवलेवे" प्रभु कमलपत्र की तरह उपलेप से रहित थे, जिस प्रकार कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है और जल में संवर्द्धित होता है तब भी वह जल के ऊपर ही रहता है और उससे निर्लिप्त बना रहता है उसी तरह भगवान् भोग में उत्पन्न हुए और अपने संबंधि जनों के बीच में संवर्द्धित हुए फिर भी उनके स्नेहरूपलेप से रहित थे, 'गगणमिव निरालंबणे' प्रभु आकाश की तरह अवलंबन से रहित थे, आकाश विना सहारे के जैसा रहता है उसी प्रकार प्रभु भी कुल ग्राम आदि की निश्रा से रहित थे, “अणिले इव निरालए" वायु जिस प्रकार संचरण शील होने से बिना किसी रोक मलाया न त "कूर्म इब गुप्तेन्द्रियः" ४२७५ म मयावस्थामा पोतानां यार પગ અને ગ્રીવાને સંકુચિત કરી નાખે છે. તેમજ પ્રભુ પણ શબ્દાદિ વિષયોમાં આસકિત ન થઈ જાય તે ભયથી સદા પોતાની પંચેન્દ્રિયોને તેમના વિષયોથી સંગાપિત–સુરક્ષિત शमता . "पुक्खरपत्तमिव निरुलेवः' प्रभु भणपत्रनी म पसेपथी २हित ता. જેમ કમળ કાદવમાં ઉત્પન્ન થાય છે. અને પાણીમાં સંવન્દ્રિત થાય છે, છતાં તે જલ ઉપર જ રહે છે અને તેનાથી નિલિત થઈ ને રહે છે, તેમજ ભગવાન ભેગમાં પ્રકટ થયા અને પિતાના સંબંધિઓની વચ્ચે રહીને મોટા થયા છતાંએ તેમના સ્નેહરૂપ લેપથી રહિત હતા "गगनमिव निरालंबणे" प्रभु माशनी म मापन विहान ता. माशम सहारा ११२ रहे छ तमा प्रभु ५। पुष, आम वगैरेनी निश्राथी २हित ता. "अणिले इव निरा હવાયુ જેમ સંચરણશીલ હોવાથી સર્વત્ર વિતરણુશીલ હોય છે, તેમજ પ્રભુ પણ આ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્રા
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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