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________________ ३६४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उपसर्गों के आने पर भी धौर हो जाने के कारण उन्हें ये सहन करने के स्वभाव वाले बन चुके थे; इन्हें किसी भी प्रकार का बाह्य और भीतर का आताप-सन्ताप-आकुल व्याकुल नही कर सकता था-उससे ये वर्जित थे इसलिए ये “परिनिर्वृतः" शीतलोभूत हो गये थे. तथा “छिन्न स्रोताः" ये इसलिये कहे कये हैं कि इनका संसार प्रवाह सर्वथा छिन्न हो चुका था, “छिन्नशोकः" जब ऐसी “छिण्णसोए" पद को छाया रखी जावेगी तब ये शोकरहित थे ऐसा इसका अर्थ होगा; “निरुपलेपः" पद से यह सूचित किया गया है ये द्रव्यमल और भावमल इन दोनो प्रकार के मलों से रहित हो चुके थे, इस तरह सामान्य रूप से भगवान् का वर्णन कर अब सूत्रकार सोपमान भगवान् का वर्णन करते हैं-ये भगवान् "शङ्खमिवणिरञ्जनः" जोव को मलीन करने वाला अञ्जन के जैसा कर्मरूप मैल जिनसे दूर हो गया है ऐसे थे, शङ्ख शुभ्र होता है इसी प्रकार कर्मरूप मैल के विगत हो जाने से प्रभु भी विशुद्ध आत्मस्वरूप वाले थे, "मूल में संस्खमिव" ऐसा जो पाठ कहा गया है सो यहां यह मकार अलाक्षणिक है "जच्च कणगं व निरूवलेवे" विशुद्ध सुवर्ण की तरह प्रभु रागादिक कुत्सित द्रव्यों के विरह हो जाने से शुद्ध स्वरूप से युक्त थे, निर्गतमल वाला सुवर्ण जैसा सुदर्शन होता है उसी प्रकार रागादिमलरहित होने से प्रभु भी सुदर्शन थे, "आदिरस पडिभागे इव पागडभावे" प्रभु आदर्श-दर्पण के प्रति बिम्ब की तरह अनिगृहित अभिप्राय वाले थे, दर्पण में जैसा मुखादिक का आकार होता है। वैसा ही वह प्रतिबिम्बित है उसी प्रकार से ऋषभदेव भी सर्वदा अनिगूहित अभिप्रायवाले थे, કમણને સહન કરવા યોગ્ય સ્વભાવ વાળા થઈ ગયા હતા. એમને બહાર કે અંદરને કઈ પણ જાતને આતાપ–સંતાપ-આકુળ વ્યાકુળ કરી શકતું ન હતું. તેનાથી એ पतिता, मेथी २४ 'परिनिर्वृतः' शीतली भूत थ गया हता. तथा 'छिन्नसोता' मे ઓ એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે. કે એમને સંસાર પ્રવાહ સર્વથા છિન્ન ભિન્ન થઈ भयो हतो. 'छिण्णसोए' पहनी 'छिन्नशोकः' मेवी छाया थशे त्यारे सय २हित हता सेवा मेनी मयशे, 'निरूपलेपः' ५४थी माम सूयित ४२वामा मावेश छ है या દ્રવ્યમલ અને ભાવમલ એ બંને પ્રકારના મલેથી વિહીન થઈ ગયા હતા. આ પ્રમાણે સામાન્ય રૂપમાં ભગવાનનું વર્ણન કરીને સૂત્રકાર હવે સેપમાન ભગવાનનું વર્ણન કરે છે से लगवान् 'शङ्खमिब णिरजनः' ७१ने मसिन ४२ना। मनना भ३५ मत જેનાથી દૂર થઈ ગયું છે, એવા હતા. શંખ શુભ હોય છે. આ પ્રમાણે કર્મરૂપ મલનાવિनाशथी प्रभु ५ विशुद्ध मात्म २१३५।। हता. भूतमा संमिव' सवेरे ५४ छतमा मा भ२ साक्षणि छ. “जत्यकनकमिव निरूपलेवः” विशुद्ध सुवानीभ प्रा . દિક કુત્સિત દ્રવ્ય વિહીન હોવા બદલ શુદ્ધસ્વરૂપ યુક્ત હતા. નિર્ગતમવવાળું સુવર્ણ જેવું सुशन डाय छे. ते भु५ प्रभु ५५ रामसहित डा महस सुशन STI, "आदर्श प्रतिभागइव प्रकटभावः” प्रभु माश-४५ना प्रतिमिनी म भनिहित मलिपाय વાળા હતા. દર્પણમાં જેમ મુખાદિકના આકાર જેવું જ પ્રતિબિંબ દેખાય છે, તેમજ ભગ વાન ત્રાષભદેવ પણ સર્વદા અનિગૂહિત અભિપ્રાયવાળા હતા. શઠની જેમ તેઓ નિગ્રહિત જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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