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________________ ३५८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भिई च ण' यत्प्रभृति-यत्समयादारम्य च खलु 'उसभे अरहा' ऋषभोऽहन् 'कोसलिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए' कौशलिको मुण्डो भूत्वाऽगारात् अनगारितां प्रवजितः, 'तप्पभिइ च ण' तत्प्रभृति तत्समयादारभ्य च खलु 'उसमे अरहा कोसलिए णिच्चं' ऋषभोऽर्हन् कौशलिको नित्यं सर्वदा 'वोसढकाए' व्युत्सृष्टकायः व्युत्सृष्टः शरीरसंस्कारपरित्यागात् विसजितः काय:-शरीरं येन तथाभूत -शरीरसंस्कारपरिवर्जित इत्यर्थः, तथा 'चियत्त-देहे' त्यक्तदेह : त्यक्तः परिपहसहनात् उज्झित इव देहो येन स तथा शरीर ममत्व रहित इत्यर्थः, एतादृशः सन् सर्वान उपसर्गान् सम्यक सहते यावत् अध्यास्ते इति परेणान्वयः । एतदेवाह-'जे केइ उवसग्गा' ये केचित् उपसर्गाः-उपद्रवा 'उप्पज्जति उत्पद्यन्ते 'तं जहा तद्यथा 'दिव्वा' दिव्याः दिवि भवाः-देवसम्बन्धिन इत्यर्थः, 'वा' शब्दो विकल्पार्थे, 'जाव' यावत्-यावत्पदेन-'माणुसा वा तिरिक्ख जोणिया वा' मानुषा वा तैयग्योनिका वा इति संग्राह्यम्, तत्र मानुषा:-मनुष्यसम्बन्धिनः , तैर्यग्योनिका: तिर्थग्योनिसम्बिन्धिनो वा 'पडिलोमा वा प्रतिकूलाः विरुद्धा वा 'अणुलोमावा' अनुकूलाः अविरुद्धा वा । 'तत्थ' तत्र तयोर्मध्ये 'पडिलोमा' प्रतिलोमा उपसर्गाः 'वेत्तेण' वेत्रेण वेत्रलतादण्डेन, 'जाव' यावत्-धावत्पदेन "तयाए वा छियाए अचेलक हो गये, "जप्पभिई च णं उसमे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ता अगारओ अणगारियं पव्वइए" जिस समय से कोलिक ऋषभ अर्हन्त मुण्डित होकर अगार अवस्था को त्याग कर अनगार अवस्था में आये, “तप्पभिई च णं उसमे अरहा कोसलिए णिच्चं वोसदकाए चियत्त देहेजे के उवसग्गा उप्पज्जति" तबसे उन्होंने अपने शरीर का संस्कार (अंगार) करना छोड़ दिया, वे त्यक्तदेह परीषहों के सहन करने से छोड़ दिये शरीर के जैसे हो गये-शरीर के महत्व हीन हो गये, "तं जहा दिव्वा वा जाव पडिलोमा वा अणुलोमा वा” जो भी कोई उपसर्ग-उपद्रव उनके ऊपर आता चाहे वह देवों द्वारा किया गया होता यावत् मनुष्यकृत या तिर्यञ्चकृत होता वे उसे अच्छी तरह से सहन करते थे । यहां "वा" शब्द विकल्पार्थक है. "तत्थ पडिलोमा वेत्तेण वा जाव कसेण वा काए आ उद्देज्जा" इन उपसर्गों में यदि कोई उपसर्ग उनके विरुद्ध होता जैसे-यदि कोई उन्हें बेंत से पीटता, वृक्ष की छाल से निर्मित रस्सी से कठिन चाबुक से पीटता, या चिकनी कशा से पोटता, लता दण्ड से उन्हें मारता, केश-चमड़े के कोडे से उन्हें मारता तो उसे भी ये बड़े शान्तभावों से सहन करते थे । "अणुलोमा वंदेज वा जाव पज्जुवापछी तसा श्री अयस मनी गया. 'जप्पभिई च ण उसमे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्बइए' याथी औशत पसना मत भुत धन सार अवस्थानी त्यास ४२॥ मए॥२ अवस्थामा माल्या. 'तप्पभिई च ण उसमे अरहा कोसलिए णिच्च वोसट्टकाए चियत्तदेहे जे केइ उपसरगा उप्पजनि' त्यारथी तसा पोताना शरीरना સંસ્કાર (શ્રગાર) કરવાનું છોડી દીધું; તેઓ ત્યકત દેહ એટલેકે પરીષહ સહન કરવાથી ત્યજી हीधा शरीर प्रत्ये ममत्वमा रेभो मेवा मानी गया. 'त जहा दिव्वा वा जाब पडिलोमा वा अणुलोमावा' २ । ७५सा-उपद्रव तमना ५२ भावतात या तो वाद्वारा કરવામાં આવેલ હોય યાવત્ મનુષ્યકૃત અગર તિર્યંચ દ્વારા કરવામાં આવેલ હોય તે બધાને तथा साशशत सडन ४२ता ता.महाया 'का श६ qिgeपाय छे. 'तत्थ पडिलोमा वेत्तेण वा जाव कसेण वा काए आउटेज्जा' मा सग पैन ने 5 64स तमनाथी જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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