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________________ ३२० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इत्यादि । गौतमस्वामी पृच्छति 'तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे' हे भदन्त ! तस्याः समायाः खलु पश्चिमे-अन्तिमे 'तिमाए' त्रिभागे 'भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे' भरतस्य वर्षस्य कीदृश आकारभावप्रत्यवतार:-स्वरूपपर्यायप्रादुर्भावः 'होत्था' प्रज्ञप्तः १ भगवानाह-'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था' हे गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहा णामए' तद्यथा नाम-'आलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणीहि उवसोभिए' आलिङ्गषुष्कर इति वा यावत् मणिभिरूपशोभितः। 'तं जहा' तद्यथा-'कित्तिमेहिंचेव अकित्तिमेहिंचेव' कृत्रिमैश्चैवेति यावत्पद संग्राह्यः पाठः पूर्वतोऽवधार्य इति । पूर्वकालापेक्षयाऽत्रायं विशेषः-पूर्वकाले हि कृष्यादिकर्माणि न प्रवृत्तान्यमूवन् . भूमिरपि कृत्रिमैस्तृणैर्मणिभिश्वोपशोभिता नासीत् , अत्र काले तु कृष्यादि कर्माणि प्रवृत्तानि, भूमिश्च कृत्रिमैस्तृणैर्मणिभिश्चोपशोभिताऽभूदिति । पुनर्गौ तमस्वामी पृच्छतिका वर्णन करके अब सूत्रकार अन्तिम त्रिभाग के विषय में कहते हैं-"तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयार मावपडोयारे होत्था" इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! उस तृतीय काल के पश्चिम विभाग में भरत क्षेत्र का स्वरूप कैसा हुआ है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणीहिंउवसोभिए तं जहा कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव" हे गौतम ! तृतीय काल के पश्चिमत्रिभाग में भरतक्षेत्र का भूमिभाग वहुसम रमणीय होता है और यह ऐसा बहुसमरमणीय होता है कि जैसा आलिंग पुष्कर होता है, यावत् यह मणियों से उपशोभित होता है. इन मणियों में कृत्रिम और अकृत्रिम मणि होते हैं. यहा यावत्पद संग्राह्य पाठ पूर्व में जैसा कहा गया है वैसा ही वह यहां ग्रहण किया गया जानना चाहिये. पूर्वकाल की अपेक्षा यहां यह विशेषता है कि पूर्वकाल में कृष्यादि कर्म चालु नहीं हुए थे; तथा भूमि भी कत्रिम तृण और मणियों से उपशोभित नहीं थी, परन्तु इस काल में तो कृष्यादि कर्म चालू हुए, और भूमि कृत्रिम एवं अकृत्रिम तृण और मणियों से शोभित हुई "तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे विभागना समयमा र छ. "तीसेणं भते ! समाए पच्छिमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था” मामी गौतम प्रभुने माशते प्रश्न ये छ । ભદંત ! તે તૃતીય કાળના પશ્ચિમ વિભાગમાં ભરતક્ષેત્રનું સ્વરૂપ કેવું થયું હશે ? આના नाममा प्रभु हे छ-"गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे होत्था से जहाणामए आलिग पुक्खरेइवा जाव मणीहि उवसोभिए तं जहा-कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव" है ગૌતમ! તૃતીય કાળના પશ્ચિમ ત્રિભાગમાં ભરતક્ષેત્રને ભૂમિભાગ બહુસમરમણીય હોય છે અને એ આલિંગ પુષ્કરવત બહસમરમણીય હોય છે, યાવત્ આ મણિઓથી ઉપરોભિત હોય છે, આ મણિઓમાં કૃત્રિમ અને અકૃત્રિમ મણિઓ હોય છે. અહીં યાવત્ પદ સંગ્રાહ્ય પાઠ પહેલાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે તે પ્રમાણે જ અહીં સમજ. પૂર્વકાળની અપેક્ષા અહીં વિશેષતા આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વકાળમાં કૃષ્ણાદિ કર્મનો પ્રારંભ જ થયો નથી. તેમજ ભૂમિ પણ કૃત્રિમ તૃણ અને મણિઓથી ઉપૉભિત ન હોતી પણ આ કાળમાં તે કૃષ્ણાદિ કર્મો ચાલુ થઈ ગયાં હતાં અને ભૂમિ કૃત્રિમ તથા અકૃત્રિમ તૃણ અને મણિ જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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