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________________ २५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे येति वा, 'आकासियाइ वा' आकाशिकेति वा 'आदंसियाइ वा' आदर्शिकेति वा, 'आगासफलोवमाइ वा' आकाशफलोपमेति वा, 'उवमाइ वा' उपमेति वा, 'अणोवमाइ वा' अनुपमेति वा, विजयाद्यनुपमान्तास्तदानीन्तना अमृतस्वादा भोज्यविशेषा विज्ञेयाः किम् ‘एयारूवे' एतद्रूपः-एतत्प्रकारकः-गुडादीनामास्वाद तुल्यस्तेषामास्वादो 'भवे' भवति ? इति । भगवानाह-'गोयमा ! णो इणट्ठसम?' हे गौतम ! नो अयमर्थः समर्थः ‘सा णं पुढवी' सा खलु पृथिवी 'इत्तो' इतः- पूर्वोक्तगुडादितः 'इट्टतरिया चेव' इष्टतरिका-अतिशयेन सकलेन्द्रिय सुखजनिका । 'जाव' यावत्पदेन कान्ततरिकाप्रियतरिका मनोज्ञतरिका चेति पदत्रयं संगृह्यते, तत्र-कान्ततरिकाअतिशयेन रुचिकरा प्रियतरिका अतिशयेन प्रेमोत्पादिका मनोज्ञतरिका-अतिशयेन मनोहरा तथा 'मणामतरिया' मन आमतरिकाअतिशयेन पुष्पोत्तर का होता है पद्मोत्तर का होता है पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर ये दो भेद एक जाति को शर्करा के होते हैं, विजया का होता हैं "महाविजयाइ वा, आकासियाइ वा, आदसियाइ वा, वा,आगासफलोवमाइ वा, उवमाइ वा, अणोवमाइ वा, भवे एयारूवे ?" महाविजया का होता है, आकाशिकाका होता है, आदर्शिका का होता है, आकाशफलोपमा का होता है, उपमा का होता है, अनुपमा का होता है-ये सब विजया से लेकर अनुपमा तक के उस समय के विशेष भोज्य पदार्थ हैं. इसका स्वाद अमृत के जैसा होता है, इतना प्रभु के कहते ही गौतमस्वामीने बीच में ही पूछा तो क्या हे भदन्त ! जैसा इनका स्वाद होता है वैसा ही स्वाद वहीं की पृथिवी का होता है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णो इणटे समटे" हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. क्योंकि “सा णं पुढवी इत्तो इद्रुतरिया चेव जाव मणामतरियाचेव आसा एणं पण्णत्ता" वहां की पृथिवी इन पूर्वोक्त गुडादि पदार्थों से भो इष्टतरक है- अतिशय रूपसे सकल इन्द्रिय को सुख जनक है. यहां यावत्पद से-"कान्ततरिका प्रियतरिका, मनोज्ञतरिका" इन तीन पद का ग्रहण हुआ है, अतः इन पदों के अनुसार वह कान्ततरिका-अतिशय रूपसे पोत्तर में सन्न हो ये विशेष प्रा२नी शना छ) विम्यान डाय छे. "महाविजयाइ वा, आगासियाइ वा आदेसियाइ वा, आगासफलोवमाइ वा, उवमाइ वा, भवे एया रुधे" महावियाना डाय छ, माशिन! हाय छ, मशिन डाय छ, मासाशકિલપમાને હોય છે, ઉપમાન હોય છે, અનુપમાન હોય છે, એ બધા વિજયાથી માંડીને અનપમ સુધીના તે વખતના વિશેષ પ્રકારના ભેજ્ય પદાર્થો છે. એમને આસ્વાદ અમૃત જે હોય છે. પ્રભુએ આટલું કહ્યું કે તરત ગૌતમે વૃચ્ચે જ પ્રશ્ન કર્યો કે-હે ભદન્ત ! ૨વો એમને સ્વાદ હોય છે, તે જ સ્વાદ ત્યાંની પૃથિવીને હોય છે ? તે એના જવાसभा ९३ छ-गोयमा ! णो इणठे समठे" 3 गौतम! 241 अथ समथ नथी. भो "साणं पुढवी इत्तो इतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव आसाएणं पण्णत्ता" त्यांनी પ્રથિવી પૂર્વોકત ગોળ વગેરે પદાર્થો કરતાં પણ ઈષ્ટ તરક છે. અતિશય રૂપથી સકલ ઈનિદ્ર भाट सुमन छ. मही यावत् ५४थी "कान्ततरिका, प्रियतरिका मनोज्ञतरिका" से ત્રણ પદ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. એથી એ પદે મુજબ તે કાન્તતરિકા-અતિશય રૂપમાં જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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