SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तदेवंविधमङ्ग - शरीर येषां ते तथा, तथा ' वज्जरिसहनारायसंघयणा' वज्रऋषभनाराच संहननाः वज्रऋषभनाराचानि वज्रऋषभनाराचनामकानि संहननानि - शरीरसंघटन प्रकारा येषां ते तथा । 'तथा - समचउरंस संठाणसंठिया' समचतुरस्रसंस्थान संस्थिताः - समचतुरस्र संस्थानम् आकृति विशेषो येषां ते तथा । तथा 'छविणिरातका' छविनिरातङ्काः छव्यां =त्वचि निरातङ्काः = रोगरहिता - दद्रुकुष्ठादि चर्मरोग रहिता इत्यर्थः । तथा 'अणुलोमवायुवेगा' अनुलोमवायुवेगाः अनुलोमः अनुकूलो वायुवेगः - शरीरान्तर्वर्त्ती वातप्रचारो येषां ते तथा । कंकगहणी' कंकग्रहण्यः - कंकस्येव पक्षिविशेषस्येव नीरोगवर्चस्कतया ग्रहणी - गु दाशयो येषां ते तथा तथा 'कवोयपरिणामा' कपोतपरिणामाः- कपोतस्येव परिणाम:आहारपरिणामो येषां ते तथा कपोतस्य प्रस्तरलवोऽपि भुक्तो जीर्यते तथैव तेषामपि भुक्तं दुर्जरभोजनम् अनायासेन जीर्यते इति भावः । अनेन तेषामजीर्णतादिदोषराहित्यं सूचिवाले होते है अच्छे स्वर और निर्घोष अनुनाद वाले होते है, प्रभा से जिनके शारीरिक अवयव प्रकाशित होते रहते है ऐसे होते हैं वज्रऋषभनाराच संहननवाले होते है समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं, चमड़ी में इनकी किसी भी प्रकार का आतंक रोग नही होता है, दद्रु कुष्ट आदि चर्मरोग से ये रहित होते हैं "अणुलोमवाउवेगा, कंकगहणी, कवोयपरिणांमा, सउणिपोस पितरोरुपरिणया छद्वणुसहस्समूसिआ " शरीरान्तर्वर्ती वायु का वेग इनके सदा अनुकूल रहता हैं इनका गुदाशयकं कपक्षी के गुदाशय की तरह नोरोगवचववाला होता हैं अर्थात् इनका गुदाशय टट्टी से लिप्त नहीं होता है कपोत का जैसा आहार परिणाम होता है उसी तरहका इनका आहार परिणाम होता हैं अर्थात् जैसे कबूतर कंकड खा जावे तो वह भी जीर्ण हो जाता है पच जाता है उसी तरह से इन्हें भी दुर्जर भोजन पच जाता है ऐसा इनका आहार परिणाम होता है इस कथन से ये अजीर्णता आदि दोष से रहित होते हैं यह बतलाया गया हैं इनकी गुदा का जो बा २४६ भाग होता है वह पक्षी की गुदा के बाह्यभाग की तरह मल के लेप से रहित रहता है पोसઅનુનાદ જેવા અનુનાદવાળા એથી શે।ભન સ્વરવાળા હોય છે. સારા સ્વર અનેનિષિ અનુનાદવાળા હાય છે. પ્રભાથી જેમના શારીરિક અવયવı પ્રકાશિત થતા રહે છે, એવા હાય છે. વ ઋષભનારાચ સંહનનવાળા હોય છે. સમચતુસ્ર સંસ્થાનવાળા હાય છે. એમની ચામડીમાં કોઈ પણ જાતની વિકૃતિ થતી નથી ૬ કુષ્ઠ વગેરે ચર્મરોગથી એએ વિહીન હાય छे, “अणुलोम वाउवेगा, कंकग्गहणी, कपोयपरिणामा सउणिपोसपितरोरुपरिणया, छद्वणुसहस्सभूसिआ" शेभना शरीरान्तर्वर्ती वायुना वेग सहा मनुडूस रहे छे. मनु ગુદાશય કકપક્ષી ના ગુદાશયની જેમ નીરાગ વાઁસ્કવાળુ હાય છે, એટલેકે એમનુ' ગુદાશય જાજરુથી લિપ્ત હેતુ' નથી. કપાતને જે જાતને આહાર-પરિણામ હેાય છે. તેજાતના એમને આહાર પરિણામ હાય છે એટલે કે કપાત કાંકરાએ ખાય છે તેા પણ જીણ થઈ જાય છે પચી જાયછે, તેવી જ રીતે એમને પણ દુર ભેજન પણ પચી જાય છે. એવે એમને આહાર પરિણામ હાય છે. આ કથનથી સ્પષ્ટ થાય છે કે એએ સર્વે અજીણ તા વગેરે દાષાથી રહિત જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy