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________________ २३८ ___ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मेवोत्कृष्टशृङ्गमिति शोभनपक्ष्मयुक्तत्व कर्णान्तगतत्वसूचनार्थं पुनरिद विशेषणमुपात्तमिति बोध्यम् । तथा-'आणामिय चाव रुइल किण्हब्भराइ संगय सुजायभूमयाओ' आनामित चापरुचिर कृष्णाभ्रराजिसंगतसुजातभ्रवः-अनामितः आरोपितो यश्चापो-धनुस्तद्वद वक्रे रुचिरे सुन्दरे कृष्णाभ्रराजिसंगते कृष्णमेघपङ्क्तिवत् संगते संहते अविच्छिन्ने सुजातेशोभने भ्रवौ यासां तास्तथा 'आलीणपमाणजुत्तसवणा आलीन.प्रमाणयुक्तश्रवणाः, आलीने-संगते अत एव प्रमाण युक्त श्रवणे-कर्णी यासां तास्तथा, अत एव 'सुसवणाओ' सुश्र वणा:-सुकर्णाः तथा 'पीणमढगंडले हाओ, पीनमृष्ट गण्डलेखाः-पीना परिपुष्टा न तु निम्नोन्नता तथा मृष्टा शुद्धा न तु श्यामत्वादिभिर्वर्णे संक्रान्ता गण्ड लेखा-कपोलपाली यासां तास्तथा, तथा 'चउरंसपसत्थसमणिडालाओ' चतुरस्रप्रशस्तसमललाटा:-चतुरस्र-चतुष्कोण प्रशस्तं लक्षणोपेतं समम्-अविषमम् ललाटं-भालं यासां तास्तथा, तथा 'कोमुईरयणि करविमलपडिपुण्णसोमवयणाओ' कौमुदी रजनीकरविमलप्रतिपूर्णसौम्यवदनाः-कौमुदीकर पुनः लोचन का वर्णन किया गया है, आनामित-आरोपित धनुष समान बक्र-कुटिल अतएव रुचिर-सुन्दर एवं कृष्णाभ्रराजि के जैसे संगत-कृष्णमेघपंक्ति के समान संगत-संहतअविच्छिन्न तथा सुजात --शोभन ऐसी भौएं 5 इनकी होती हैं । "आलीणपमाणजुत्तसवणा, सुसवणाओ, पीणमढगंडलेहाओ, चउरंसपसत्थसमणिडालाओ, कोमुईरयणियरविमलपडिपुण्णसोमवयणाओ" इनके दोन श्रवण-कान-आलीन-संगत होते हैं अतएव वे प्रमाणयुक्त होते हैं और इसी लिये ये सुकर्ण-अच्छे कान वाली मानी जाती है इनको कपोलपालो पोन होती है-परिपुष्ट होती है, नीची ऊँची नहीं होती है तथा वह शुद्ध होती है श्यामता आदि वर्गों से संकान्त नहीं होती है इसका ललाट भाल चतुरस्र चौकोर होताहै, प्रशस्त-लक्षणोपेत होता है, एवं सम-अविषम होता है इनका मुख शरदकाल की पूर्णिमा के चन्द्र के जैसा विमल-निर्मल होता है, प्रतिपूर्ण होता है-सौन्दर्य से पूर्णरूप में भरा हुआ होताहै और सौम्य-शान्तिजनक होता है "छत्तण्णय उत्तमंगाओ, अ લઈને ફરીથી નેત્રોનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. આનામિત આરો પિત ધનુષની જેમ વક કુટિલ એથી રુચિર સુંદર તેમજ કૃષ્ણાસ્રરાજિની જેમ સંગત કૃણ મેઘપંકિતની સમાના संत-सहत मावन्न तथा सुगत शामन मेवी लम। मेमन डाय छ. "आलीणपमाण जुत्तसवणा सुसवणाओ, पीणमटूठगंडलेहाओ, चउरंसपसत्थसमणिडालाओ, कोमुई राणअर विमलपडिपुण्णसोमवयणाओ' समना सन्न श्रवणे-साना मासान सगत डाय छे. એથી તે સપ્રમાણ હોય છે અને એટલા માટે જ એઓ સુકર્ણ એટલે કે સારા કાનેવાળી માનવામાં આવે છે. એમની કપોલ પાલી પીન હોય છે પરિપુષ્ટ હોય છે, નીચી ઊંચી હતી નથી તેમજ તે શુદ્ધ હોય છે. શ્યામતા વગેરે વણેથી સંક્રાંત હોતી નથી. એમને લલાટ પ્રદેશ ભાલ ચતુરસ્ત્ર ખૂણિ હોય છે. પ્રશસ્ત લક્ષણપત હોય છે. તેમજ સમ-અવિષય હોય છે. એમનું મુખ શરદૂ કાલની પૂર્ણ માસીના ચન્દ્રના જેવું વિમળ નિર્મલ હોય છે પ્રति डाय छ, सोन्यथा परिपू डाय छे अने सौम्य शतिन सय छे. "छत्तुण्णय જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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