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________________ १५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कतिविधः प्रज्ञप्तः भगवानाह- 'गोयमा छविहे पण्णते' हे गौतम अवसर्पिणीकालः षइविध प्रज्ञप्तः 'तं जहा-'सुसम सुसमाकाले' तद्यथा सुषमसुषमाकाल:-सु-सुष्टु शोभना समा वर्षाणि यस्या सा सुषमा, अत्र सुविनिर्दुभ्यः सुपि सूति समा:८।३।८८ इति सकारस्य पत्वम् सुषमाचासौ सुपमा सुषमसुषमा, उभयोः समानार्थयोः प्रकृष्टार्थत्वा दत्यन्त सुषमेत्यर्थः इयमवैकान्तसुखरूपप्रथमारकरूपा सा चासौ कालश्च सुषम सुषमा काल: १, 'सुसमाकाले' सुषमाकालः तत्र सुषमा-प्रागुक्तस्वरूपा तद्रूप कालस्तथा २, 'सुसम:दुस्सम काले' सुषम दुष्पमाकालः तत्र सुषमा प्रागुक्तस्वरूपा सा चासौ दुष्पमा दुः दुष्टा समा वर्षाणि यस्या सा चेति सुषमदुष्पमा अधिक सुषमा प्रभावाऽल्पदुष्षसुषमाप्रभावा तद्रपः कालः सुषमदुष्पमाकालः ३ 'दुष्षम सुसमाकाले' दुष्षम सुषमाकालः दुष्षमा चासा सुषमा है । यहां जो दो चकार आये हैं वे यह प्रकट करते हैं ये दोनो काल अरक आदिकों की अपेक्षा समान है, और परिमाणता आदि को अपेक्षा भो समान हैं । अब अवसर्पिणी काल के कितने भेद हैं इसबात को श्रीगौतम स्वामी पूछते हैं “ओसप्पिणि कालेणं भंते ! कइविहे पणत्ते" हे भदन्त ! अवसर्पिणी काल कितने प्रकार का कहा गया हैं उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोयमा ! छविहे पण्णत्ते" हे गौतम ! अवसर्पिणो काल ६ प्रकार का कहा गया हैं "तं जहा" जैसे- "सुसम सुसमाकाले १, सुसमाकाले २, सुसमदुस्समकाले ३, दुस्समसुसमाकाले ४, दुस्समाकाले ५, दुस्समदुस्समा काले ६, सुषममुषमा काल- जिसमें अच्छे समा-वर्ष होते हैं उसका नाम सुषमा हैं यहां स को घ "सुविनिर्दुभ्यः सुपि सूति समा” इस सूत्र से हुआ है "सुषमा चासौ सुषमा इति सुषमसुषमा" यहां दूसरा सुषमा शब्द भी इसी पूर्वोक्त-प्रथम सुषमा अर्थ का हो वाचक है. यह दोनों समानार्थक शब्दों के प्रयोग से यह काल अत्यन्त शोभन वर्षों वाला होता है. यह प्रथम आरफ अवसर्पिणी काल का कहागया है. क्यों कि यहो एकान्ततः सुखखरूप होता है. તે એ બતાવે છે કે એ બને કાળો અરક વગેરેની અપેક્ષાએ સમાન છે. અને પરિમા ણતા આદિની અપેક્ષાએ પણ સમાન છે. હવે અવસર્પિણી કાળના કેટલા ભેદ છે, એ पातन गौतम स्वामी पूछे छे. “ओसप्पिणि काले ण भंते ! कहविहे पपणते' डे महत! भqसमि ट मा प्रा२ने। वाय छे ! उत्त२ मा ५४ ४९ छ- “यमा! "छविहे पण्णत्ते" हे गौतम ? असमिती १६२न। हेवामा मावेसछे. "तं जहा" रेम 3 "सुसमसुसमाकाले १, सुसमाकाले २, सुसमदुस्समकाले ३, दुस्समसुसमाकाले १, दुस्लमाकाले ५, दुस्समदुस्समाकाले ६" सुषमसुषमा ५ मा सा२सभा-वर्ष-डेय छे. तेनु नाम सुषमा छे. मही' 'स' नो 'ष' सुविनि-दुर्घ्य सुपि सूतिसमः" ८११८८ मा सूत्र 3 थथे छ सुषमा चासौ सुषमा इति सुषम सुषमा" ही मान्ने सुषमा श६ ५५ પૂર્વોક્ત પથમ અર્થને જ વાચક છે. સમાનાર્થક બને શબ્દોના પ્રાગથી આ સ્પષ્ટ થાય છે કે આ કાળ અતીવ શેભન વર્ષવાળે થાય છે. આ પ્રથમ આરક અવસર્પિણી કાળને જમ્બુદ્વીપપ્રજ્ઞપ્તિસૂત્ર
SR No.006354
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages992
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size62 MB
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