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________________ ९३४ सूर्यप्राप्तिसूत्रे क्षेत्रस्यायमविष्कम्भपरिमाणं खलु पश्चचत्वारिंशल्लक्षाः (४५०००००) अत्र एकालक्षा जम्बूद्वीपे, ततश्च लवणसमुद्रे एकतोऽपि द्वे लक्षे अपरतोऽपि-द्वे लक्षे इति चतस्रोलक्षाः (४०००००) धातकीखण्डे एकतोऽपि चतस्रो लक्षाः, अपरतोऽपि चतस्रो लक्षा इत्यष्टौ लक्षा: (८०००००) तथा कालोदधिसमुद्रे एकतोऽपि अष्टौ लक्षाः अपरतोप्यष्टौ लक्षाः इति षोडशलक्षाः (१६०००००)। तथा अभ्यन्तरपुष्कराई एकतोऽप्यष्टौ लक्षाः अपरतोऽप्यष्टी लक्षा इति षोडशलक्षाः-(१६०००००) सर्वासां संख्यानां संकलनेन पञ्च चत्वारिंशल्लक्षा: विष्कम्भो मनुष्यक्षेत्रस्येति । ततश्च (व्यासवर्गोऽदशगुणाः पदं भूपरिधि भवेत्) इत्यस्य सदृशेन (विक्खंभवग्गदहगुणे....) इत्यादिना करणोक्तनियमेन परिधिगणितपरिभावना स्वतएव समुत्पन्ना स्यात् । यथैव पूर्वमनेकधा परिभाविता तथैवात्रापि परिभावनीयेति ॥ यहां परिधि परिमाण की भावना इस प्रकार से है-मानुषक्षेत्र का आयाम विष्कंभ का परिमाण पैंतालीस लाख योजन (४५०००००) का है। यहां पर एक लाख जंबूद्वीप का, तत्पश्चाम् लवणसमुद्र का पूर्व में भी दो लाख एवं पश्चिम में भी दो लाख इस प्रकार चार लाख (४०००००) धातकी खंड का दोनों तरफ का चार चार लाख इस प्रकार आठ लाख (८०००००) तथाकालोदधि समुद्र का दोनों बाजु का पूर्व पश्चिम में आठ आठ मिलकर सोलह लाख १६०००००) तथा अभ्यन्तरपुष्कराई पूर्व पश्चिम का आठ आठ लाख मिलकर सोलह लाख (१६०००००) इन सभी संख्या को मिलाने से पैंतालीस लाख का विष्कंभ मानुषक्षेत्र का होता है। तत्पश्चात् (व्यास वर्गोऽदशगुणाः पदंभू परिधिर्भवेत्) इस कथन के समान (विक्खंभवग्गदहगुणे०००) इत्यादि से करण गाथा में कहे गये नियम से परिधि की गणित भावना स्वतंत्र ही हो जाती है। जिस प्रकार पहले अनेक प्रकार से भावित किया है ऐसा ही यहां पर भावित करलेवें । ભાવને આ રીતે છે. માનુષક્ષેત્રના આયામ વિષ્કભનું પરિમાણ પિસ્તાલીસ લાખ (૪૫૦૦૦૦૦ એજનનું છે. અહીં એક લાખ જંબુદ્વીપનું તે પછી લવણસમુદ્રનું પૂર્વનું બેલાખ અને પશ્ચિમનું બેલાખ આ રીતે ચાર લાખ (૪૦૦૦૦થા ધાતકીખંડની બને તરફના ચાર ચાર લાખ આ રીતે આઠ લાખ તથા કાલેદધિ સમુદ્રના પૂર્વ પશ્ચિમ બને બાજુના મેળવાથી સેળલાખ ૧૬૦૦૦૦૦) તથા અત્યંતર પુષ્કરાઈ પૂર્વ પશ્ચિમના આઠ આઠલાખ મેળવવાથી સોળલાખ (૧૬૦૦૦૦૦ી આ બધી સંખ્યાને મેળવવાથી પિસ્તાલીસ सामने fast भानुषक्षेत्रने। थाय छे. ते पछी (व्यासवर्गोऽदशगुणा पदं भू परिधि भवेत) २0 ४थन प्रमाणे (विक्ख भवग्गदहगुणेना) त्या ४२७ ॥i Hit प्रभारीना નિયમથી પરિધિની ગણિત ભાવના સ્વતંત્ર જ થઈ જાય છે જે પ્રમાણે પહેલા અનેક પ્રકારથી ભાવિત કરેલ છે તેજ પ્રમાણે અહીં ભાવિત કરી લેવું. શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૨
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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