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________________ ८६४ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रे भोगभोगान् भुज्यमानो विहत्ते प्रभुः-प्रभवितुं समर्थो भवति किं चन्द्र इति गौतमस्य प्रश्नः ततो भगवानाह-'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः । नैतत सम्भति लोके नायमर्थः समर्थःलोकशा नायमर्थः उपपन्नो भवति केवलं चन्द्रदेव एव अलौकिकया विकुर्वणया शक्त्या तथा कत्तु प्रभवितु प्रभूरीशो भवति, अतएव न युक्तोऽयमथे इति भावः । अथ पुनर्गोतमः प्रश्नयति-'ता कहं ते णो पभू जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिसए विमाणे सभाए सुधम्माए तुडिएणं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए !' तावत् कथं ते न प्रभुज्योतिपीन्द्रो ज्योतिषराजश्चन्द्रावतंसे विमाने सभायां सुधर्मायां त्रुटिकेन सार्द्ध दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जमानो विहर्नु ?,' तावदिति पूर्ववत् कथं-केन हेतुना ते-तवमतेन-नायमर्थः समर्थ इति लौकिकार्थनेति, किन्तु केवलं ज्योतिषीन्द्रो ज्योतिषराजश्चन्द्र एव स्वकीयस्थानस्योर्ध्वप्रदेशे विमाने स्थितायां सुधर्मायां सभायां स्वकीयान्तःपुरेण-त्रुटिकन सार्द्धदिव्यान् भोगभोगान् भुनानो विहत्तुं प्रभवतीत्यत्र को हेतुः १,-किं कारणमिति गौतमस्य सभा होती है, उस सुधर्मा सभा में अंतः पुरके साथ दिव्य अर्थात् अलौकिक भोगभोगों को भोगने में चंद्र समर्थ होता है ? इस प्रकार श्री गौतमस्वामी के प्रश्न को सुनकर उत्तर में श्री भगवान कहते हैं-(णो इणढे सम?) यह अर्थ समर्थ नहीं है । अर्थात् इस प्रकार नहीं होता है, लोक की दृष्टि में इसप्रकार नहीं होता है, केवल चंद्र देव ही अलौकिक विकुवर्णा शक्ति से उस प्रकार करने में समर्थ होता है। अतएव इस प्रकार का यह कथन यथार्थ नहीं होता है। श्री गौतमस्वामी पुनः प्रश्न करते हैं-(ता कहं ते णो पभू जोतिसिंदे जोतिसराया चंदवडिसए विमाणे सभार सुधम्माए तुडिएणं सद्धिं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए) किप्त कारग से आप के मत से यह अर्थ लौकिक अर्थ से समर्थ नहीं है ? किन्तु केवल ज्योतिषीन्द्र ज्योतिषराज चंद्र ही अपने स्थान के ऊपर के प्रदेश में विमान में रहो हुई सुधर्मा सभा में अपने अंतः पुर के साथ दिव्य भोगों को भोग करके विहार करने में समर्थ नहीं પ્રદેશના વિમાનમાં જે સુધર્માનામની સભા હોય છે, એ સુધર્મસભામાં અંતઃપુરની સાથે દિવ્ય અર્થાત અલૌકિક ભેગ ભેગોને ભેળવવામાં ચંદ્ર સમર્થ હોય છે? આ પ્રમાણે શ્રીगौतमस्वामीना पूछवाथी उत्तरमा श्रीभगवान् छ.-(गो इण्टे समटे) । म परामर નથી. અર્થાત આ પ્રમાણે થતું નથી કેવળ ચંદ્ર દેવજ અલૌકિક વિકુર્વણ શક્તિથી એ રીતે કરવામાં સમર્થ હોય છે. તેથી આ કથન યથાર્થ નથી. શ્રીગૌતમસ્વામી ફરીથી પૂછે છે– (ता कह ते णो पभू जोतिसि दे जोतिसराया चंदव डिसए विमाणे समाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धि दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरित ) ॥ रथी मापना भतथी । म સમર્થનથી ? પરંતુ કેવળ જ્યોતિષીન્દ્ર તિષરાજ ચંદ્રજ પિતાના સ્થાનથી ઉપરના પ્રદેશના વિમાનમાં રહેલ સુધર્મા સભામાં પિતાના અંતઃપુરની સાથે દિવ્ય એવા ભેગે પગ श्री सुर्यप्रति सूत्र : २
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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