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________________ सूर्यप्राप्तिसूत्रे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा-बाघातिमे य णियाघातिमे य' तावत् द्विविधं अन्तरं प्रज्ञप्तं, तद्यथा व्याघातिमं च निर्व्याघातिमं च ।।-तावदिति पूर्ववत्, तारारूपस्य विमानस्यान्तरं द्विविध प्रज्ञप्तं, तत्रैकमन्तरं व्याघातिमाख्यं व्याहननं व्याघात:-पर्वतादिस्खलनं तेन निवृत्तं यत् तत् व्याघातिमं अन्तरमुच्यते। तथा निर्व्याघातिम-व्याघातिमानिर्गतं-स्वाभाविकमित्यर्थः॥ अथ अन्तरद्वयसंख्यां प्रतिपादयति-तत्थ णं जे से बाघातिमे से णं जहण्णेणं दोषिणचावटे जोयणसए उक्कोसेणं बारस जौयणसहस्लाई दोण्णिवायाले जोयणसए तारारूवस्स तारारुवस्स य अवाधाए अंतरे पण्णत्ते' तत्र खलु यत् तत् व्याघातिमं तत् खलु जघन्येन द्वे द्वापष्टि योजनशते उत्कर्षण द्वादशयोजनसहस्राणि द्वे द्वाचत्वारिंशते योजनशते तारारूपस्य तारारूपस्य च अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ॥ तत्र-अन्तरविचारे खल्विति वाक्यालंकारे यत् व्याघातिम-पर्वतादिस्खलनसहितमन्तरं किल तत् जघन्येन-अल्पतरेण द्वे योजनशते द्वाणिवाघातिमेय) तारारूप विमान का अंतर दो प्रकार का कहा है। पर्वतादि से स्खलन को व्याघात कहते हैं उस प्रकार का व्याघात जिस में हो वह व्याघातिम अंतर कहा जाता है तथा दूसरा व्याघात रहित अर्थात् स्वाभाविक इस प्रकार दो प्रकार का अंतर कहा है । अब दोनों प्रकार के अंतरों की संख्या भेदका प्रतिपादन करते हैं-(तत्थ जे से वाघातिमे से णं जहण्णे णं दोणि बावटे जोयणलए उक्कोसेणं बारस जोयणसहस्साई दोण्णिवायाले जोयणसए तारारुवस्स य अबाधाए अंतरे पण्णत्त) अंतर की विचारणा में जो व्याघातिम अर्थात् पर्वतादि से स्खलन वाला अंतर है वह जघन्य से दो सो बासठ २६२ । योजन होता है। यह निषध कूट की अपेक्षा से कहा जानना चाहिये। जैसे यहां पर निषध पर्वत स्वभाव से ही सब से अति ऊंचा अर्थात् चारसो योजन की ऊंचाई वाला है । उसके ऊपर पांचसो योजन की ૩૫ વિમાનનું અંતર બે પ્રકારથી પ્રજ્ઞપ્ત કરેલ છે. તેમાં એક પ્રકારનું વ્યાઘાતિમ અંતર કહ્યું છે. પર્વત વિગેરેથી પડવું તેને વ્યાઘાત કહે છે. એ પ્રકારથી વ્યાઘાત જેમાં હોય તે વ્યાઘાતિમ અંતર કહેવાય છે. તથા બીજી વ્યાઘાત વિનાનું અર્થાત્ સ્વાભાવિક આ રીતે બે પ્રકારનું અંતર કહ્યું છે. भन्ने प्रश्न मतनी सध्या लहनु प्रतिपादन ४२ छ. (ता जे से वाघातिमे से ण जहण्णेण दोण्णि बावट्टे जोयणसए उक्कोसेण बारस जोयणसहस्साई दोन्ति बायाले अबाधाए उक्कोसेणं बारस जोयणसहस्साई दोण्णि य बायाले जोयमसर तारारूत्रस्त य अबाधाए अंतरे पण्णत्ते) सतनी वियामा व्याधातिभ अर्थात् यी ५४॥३५ मत२४धन्यथी બસેબાસઠ ૨૨૨) જનનું હોય છે. આ નિવધ કૂટની અપેક્ષાથી કહ્યું છે તેમ સમજવું. જેમ અહીં નિષધ પર્વત સ્વભાવથીજ સૌથી ઘણે ઉંચે અર્થાત બારસે જનની ઉંચાઈવાળો છે. તેની ઉપર પાંચસે લેજનની ઉંચાઇવાળા કૂટ-શિખર છે. એ કૂટો મૂળ ભાગમાં પાંચ શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૨
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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