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________________ ३३० सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रे वानीति । मूलग्रन्थेऽपि एवमेव यथा-'तिणि छावट्ठाई राइंदियसयाई" द्वितीये-'सत्तदूतीसं राइंदियसयाई' द्वात्रिंशदधिकानि सप्तशतानि रात्रिन्दिवानि द्वितीयवर्षान्ते भवन्तीति । ततश्च तृतीयवर्षान्ते-'चोदस चउणहिराइंदियसयाई' चतुः षष्टयधिकानि चतुर्दशशतानि रात्रिन्दिवानि चतुर्थवर्षान्ते भवन्ति, ॥ पश्चमवर्षान्ते च 'अट्ठारसतीसाइं राइंदियसयाई' त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दिवानामष्टादशशतानि पञ्चमवन्तेि भवन्नीति प्रतीतिरुत्पादनीया ॥ 'ता जेणं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोयं जोएइ जंसि णं देसंसि तेण इमाई छत्तीसं सहाई राइं. दियसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएइ तंसि णं देसंसि' तावद येनाद्य नक्षत्रेण सूर्यों योगं युनक्ति यस्मिन् देशे तेन इमानि पत्रिंशत षष्टिः रात्रिन्दिवशतानि उपादाय पुनरपि स सूर्य स्तेनैव च नक्षत्रेण योगं युनक्ति तस्मिन् खलु देशे ॥ -तावदिति पूर्ववत अद्य-विविक्षिते दिने येन नक्षत्रेण सह सूर्यो योगं युनक्ति-योग मुपगच्छति यस्मिन खलु देशे खलु इति वाक्यालङ्कारे यस्मिन् मण्डलप्रदेशे योग मश्नुते तत्र प्रदेशे इमानि-वक्ष्यमाणसंख्याकानि “छत्तीसं सट्टाई राइंदियसयाई' षष्टयधिकानि षट्होती है। मूल ग्रन्थ में भी इसी प्रकार से कहा है-'तिष्णि छावट्ठाई राइंदियसयाइं) प्रथम वर्षान्ते तीनसो छियासठ अहोरात्र दूसरे में 'सत्तदुत्तीस राइंदिय सपाई) दूसरे वर्ष के अंत में सात सो बत्तीस अहोरात्र होते हैं। तदनन्तर तीसरे वर्ष के अन्त में एक हजार अठाणवें अहोरात्र होता हैं तथा (चोद्दसचउसहि राइंदियसयाई) चौदहसो चौसठ अहोरात्र चौथे वर्ष के अंत में होते हैं। पांचवें वर्ष के अंतमें (अट्ठारसतीसाइं राइंदियसाई) अठारहसो तीस अहोरात्र प्रमाण पांचवे वर्ष के अंत में होता है, ऐसी प्रतीति होती हैं (ता जेणं णक्खत्तणं सरे जोयं जोएइ, जसि देसंसि तेण इमाइं छत्तीसं सट्टाई राइंदियसयाई उवाइणावेत्ता पुणवि से सूरे तेणं चेव णक्खत्तेणं जोयं जोएइ तसिणं देसंसि) विवक्षित दिन में जिस नक्षत्र के साथ सूर्य योग प्राप्त करता है, उस मंडल प्रदेश में ये वक्ष्यमाणसंख्य (छत्तीसं सट्ठाई राइंदियसयाई) (तिणि छावदाई राइदियसयाइ) पहे। वन मतमा सोछास रात्र ilan वर्षातभा (सत्त दुतीसं राइदियसयाइ) मीon qष न-तम सतसे त्रीस अहोरात्र થાય છે. તે પછી ત્રીજા વર્ષના અંતમાં એકહજાર અઠાણુ અહોરાત્ર થાય છે, તથા (चोदस चउसद्विराइ दियसयाई) यौहसा यास महाराज याथा १ नमतमा थाय छे. पांयमा वषना मतमा (अट्ठारस तीसाइ राइदियसपाइ) २१ढारसी श्रीस महे॥२॥ प्रभा पायमा वन तमां थाय छ; तेम प्रतीति याय छे. (ता जेणं णक्खतेणं सूरे जोय जोएइ, जसि देसंसि तेण इमाई छत्तीसं सट्टाई राइदियसयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि से सुरे तेणं चेव णक्खत्तण जोय जोएइ तंसि णं देसंसि) विवक्षित हिवसमा नक्षत्रनी साथे सूर्य या प्राप्त २ छ, से में प्रदेशमा मे १६यमा सध्यावा (छत्तीसं શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર:
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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