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________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सू० १०९ विंशतितम'प्राभृतम् ___ १०९३ दुर्लभा इत्यर्थः, अभव्यत्वादेव तेषां सम्यक जिनवचनपरिणतेरभावात् । उत्कीर्तिताप्रतिपादिता-कथिता भगवती-ज्ञानेश्वर्यस्वरूपा देवता, ज्योतिषराजस्य-सूर्यस्य प्रज्ञप्ति:ज्ञानविशेषस्वरूपा देवता, एपा च स्वयं गृहीता सती यस्मै कस्मै न प्रदातव्या इति ॥१॥ अथ तत् प्रतिपादनार्थमाह-'एस गहितावि संता थद्धे गारवियमाणि पडिणीए- अबहुस्सुए ण देया तविवरीए भवे देया ॥२॥ एषा गृहीतापि सती स्तब्धा य गौरवित-मानि-प्रत्यनीकाय । अबहुश्रुताय न देया तद्विपरीताय भवेत् देया ॥२॥-एपा-सूर्यप्रज्ञप्तिः गृहीतापि-स्वयं सम्यक् करणेन गृहीतापि सती 'अत्र व्यत्ययोऽप्यसा' मित्यनेन वचनेन चतुर्थ्यर्थे सप्तमीज्ञेया, अतोऽयमर्थः थद्धे स्तब्धाय-जडाय-स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयभ्रंशकारिणे, गौरविताय-गौरवान्विताय-विद्या-विनयमानद्धिभिः प्राप्त गौरवं येन स गौरवितस्तस्मै गौरविताय-ऋद्धिरस सातानामन्यतमेन गौरवेण गुरुतरायेति भावार्थः, ऋद्धयादिकारण वे अभव्य होने से उन में सम्यक प्रकार से जिनवचन परिणति का अभाव रहता है। इस प्रकार से यह शास्त्र उत्कीर्तित अर्थात् प्रतिपादित किया है । यह भगवती-अर्थात् ज्ञानेश्वर्य रूप देवता ज्योतिषराज सूर्यदेव की प्रज्ञप्ति अर्थात् ज्ञान विशेष स्वरूप देवता को स्वयं ग्रहण कर के जिस किसी को न कहे ॥१॥ ____ अब इसके प्रतिपादन के लिये कहते हैं-(एस गहिया वि संता) इत्यादि । यह सूर्य प्रज्ञप्ति शास्त्र स्वयं सम्यक् प्रकार से जानकर के (यहां गाथा में (व्यत्ययोऽपयसा) इस वचन से चतुर्थी के अर्थ में सप्तमी हुई है । अतः इस प्रकार के अर्थ होता है । (थद्धे) स्तब्ध जड अर्थात् स्वभाव से ही अभिमान प्रकृति के कारण विनय रहित ऐसे तथा (गोरविताय) गौरवशाली अर्थात् विद्या-विनय मानादि ऋद्धि से गौरव प्राप्त पुरुष को कहने का भाव यह है कि-ऋद्धि रस साता आदि में से कोई भी गौरव से गुरुतर को अर्थात् ऋद्धयाપ્રકારથી વિચારીને અભવ્યજનને દુર્લભ એમ કહ્યું છે, કારણ કે તેઓ અભવ્ય હોવાથી તેમાં સમ્યક પ્રકારથી નવચન પરિણતિને અભાવ રહે છે. આ પ્રમાણે આ શાસ્ત્ર ઉત્કીતિત અર્થાત્ પ્રતિપાદિત કરેલ છે, આ ભગવતી અર્થાત્ જ્ઞાનેશ્વર્ય રૂપ દેવતા તિષરાજ સૂર્યદેવની પ્રજ્ઞપ્તિ એટલે કે જ્ઞાન વિશેષ રૂપ દેવતાને રવયં ગ્રહણ કરીને ने तर ४ नही (१) वे मान प्रतिपाहन भाटे ४ छ-(एसगहियविसंता) त्याहि मा सूर्य प्रति शार स्वयं सभ्य प्राथी याने मी याम (व्यत्ययो कपयसा) २॥ पयनथा यतुથિના અર્થમાં સપ્તમી થઈ છે. તેથી આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે (બ) સ્તબ્ધ-જડ અર્થાત माथी । भनिभानी प्रकृतिना ॥२४थी विनय हित सेवा तथा (गोरविताय) गौ२१. શાલી એટલે કે વિદ્યાવિનય માનાદિ ઋદ્ધિરસસાતા વિગેરેમાંથી કોઈ પણ ગૌરવથી શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર:
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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