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________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सू० १०६ विंशतितम प्राभृतम् १०६९ कास्तु सूर्या एव, सर्वव्यापकत्वात् सूर्य इति नाम। अतएवोच्यते एवमित्यादिना-'एवं खलु सूरे आइच्चे सूरे आइच्चे आहिएत्ति वएज्जा' एवं खलु सूर्यः आदित्यः सूर्यः आदित्यः आख्यात इति वदेत् । एवं-पूर्वोदितेन प्रकारेण-पूर्वप्रतिपादितेन सर्वव्यापकत्वदर्शन कारणेन खल्विति निश्चितं सूर्यएव-आदित्यस्तथा आदित्य एव सूर्य इति वा आख्यात इति वदेत-स्वशिष्येभ्य उपदिशेत्, आदित्य सूर्ययोः अन्वर्थार्थ भेदो नास्तीति सर्वेभ्यः कथयेत् । सरतिसर्वत्र गच्छतीति सूर्यः-सर्वव्यापक:-कालात्मा सूर्यः दिनकृत् सर्वप्राणदाता सूर्यः, अनाधन्तेऽस्मिन्काले कालप्रवर्तकः सूर्यः, एवमादिभिर्यथा सूर्यस्य सर्वव्यापकत्वं सिद्धयति तथैव आदित्वस्यापि सर्वव्यापकत्वं सिद्धयत्येव, यथा-आदौ भवः आदित्यः, बहुलवचनात् त्य प्रत्ययः, आदौ-सष्टयादौ सर्वप्रथमः सूर्यएव दृश्यो भवति सृष्टिकर्तरपि, तस्यैव सूर्यस्य स्थितिगतिविधं विलोक्य अन्यानपि असंख्यविधान् सृष्टिपदार्थान् सृजति सृष्टिकर्तापि की काल परिभाषा कही है। सभी परिभाषा का प्रवर्तक सूर्य ही होता है। सर्व व्यापक होने से सूर्य ऐसा नाम कहा है। अतएव कहते हैं (एवं खलु सूरे आइच्चे आहिएत्ति वएजा) इस पूर्वकथित प्रकार से सर्वव्यापकादि दर्शन कारण से सूर्य ही आदित्य है, एवं आदित्य ही सूर्य है ऐसा कहा है। इस प्रकार स्वशिष्यों को कहें-आदित्य सूर्य में एवं सूर्य आदित्य में अन्वर्थ पने में कोई प्रकार का भेद नहीं है ऐसा सभी को प्रतिपादित कर कहें। (सरति) अर्थात् सर्वत्र गमन करे वह सूर्य, सर्व व्यापक, काल का आत्मा, सूर्य होता है, दिन प्रवर्तित करनेवाला एवं सर्व को प्राण दाता सूर्य होता है, अनादि अनन्त इस काल में काल प्रवर्तक सूर्य होता है। इत्यादि प्रकार से जिस प्रकार सूर्य का सर्वव्यापकपना सिद्ध होता है, उसी प्रकार आदित्य की भी सर्वव्यापकता सिद्ध होती है । जैसे की आदि में जो हो वह आदित्य बहुल वचन से (त्य) प्रत्यय होता है, आदि अर्थात् सृष्टि की आदि में व्या५४ पाथी सूर्य के प्रमाणे नाम ४युं छे. तेथील ४९ छेडे-(एवं खलु सूरे आइच्चे आहिएत्ति वएज्जा) २॥ पूर्व प्रथित प्र४२थी सवय।५ ६शन ४।२४थी सूर्य साहित्य છે અને આદિત્ય જ સૂર્ય છે. તેમ કહ્યું છે. આ પ્રમાણે શિષ્યોને કહેવું આદિત્ય અને સૂર્યમાં તથા સૂર્ય અને આદિત્યમાં અન્વર્થ પણમાં કઈ પણ પ્રકારને ભેદ નથી. આ પ્રમાણે प्रतिपाइन शन अचाने ४ (सरति) अर्थात् सवत मन ४२ ते सूर्य, सव्या५४ કાળનો આત્મા સૂર્ય હોય છે. દિવસને પ્રવર્તાવનાર અને સર્વના પ્રાણદાતા સૂર્યજ હોય છે, અનાદિ અનંત આ કાળમાં કાળ પ્રવર્તક સૂર્ય હોય છે. વિગેરે પ્રકારથી જે પ્રમાણે સૂર્યની સર્વવ્યાપકતા સિદ્ધ થાય છે. એ જ પ્રમાણે આદિત્યની પણ સર્વવ્યાપકતા સિદ્ધ થાય છે. જેમકે–આદિમાં જે હોય તે આદિત્ય બહૂલવચનથી (હ્યુ) પ્રત્યય થાય છે. આદિ શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર:
SR No.006352
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1982
Total Pages1111
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size77 MB
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