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________________ सूर्यप्रशप्तिसूत्रे यन्ति ॥ चतुर्थाः अश्विन्यादिरेवत्यन्तं संख्यायन्ते ॥ तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्ति रुपदर्य सम्प्रति-वास्तविकं वस्तुतत्वस्वरूपं स्वकीय मतमुपदर्शयत्याचार्य:-'वयं पुण एवं वयामो वयं पुनः एवं वदामः ॥ वयं-सकलवस्तुतत्त्वज्ञाना वयम् एवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण वस्तुतत्त्वं वदामः-कथयाम स्तद्यथा तत्प्रकारमाह-'ता सव्वेवि णं णक्खत्ता अभिई आदीया उत्तरासाढा पज्जवसाणा पण्णत्ता, तं०-अभिई सवणो जाव उत्तरासाढा' तावत् सर्वाण्यपि नक्षत्राणि अभिजिदादीनि उत्तराषाढापर्यवसानानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-अभिजित् श्रवणो यावत् उत्तरापाढा ।।-तावदिति प्राग्वत् नक्षत्रगणनाक्रमे वास्तविका रीति स्त्वीदृशी-सर्वाण्यपि नक्षत्राणि अभिजिदादीनि उत्तराषाढान्तानि परिगणनीयानीति प्रज्ञप्तानि । यतो हि सर्वत्रोपपत्ति रपेक्ष्यते-युक्तिरत्रोच्यते-इह सर्वेषामपि सुपममुपमादिरूपाणां कालविशेषाणा मादियुगम्, पर्यन्त कहते है । (४) चौथा मतावलम्बी अश्विनी से लेकर रेवती पर्यन्त के गिनते हैं। तथा पांचवां तीर्थान्तरीय भरणी नक्षत्र से लेकर अश्विनी नक्षत्र पर्यन्त के गिनते हैं। इस प्रकार परतीथिकों की प्रतिपत्ती को कह करके अब वास्तविक वस्तुतत्व स्वरूप अपना मत का कथन करते हैं (वयं पुण एवं वयामो) सकल वस्तु तत्व के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाला मैं इस वक्ष्यमाण प्रकार से इस विषय संबंधी वस्तुतत्व को कहता हूं जो इस प्रकार से है-(ता सव्वेवि णं णक्वत्ता अभिई आदिया उत्तरासाढा पज वसाणा पण्णत्ता ते जहा-अभिई, सवणो, जाव उत्तरासाढा) नक्षत्र के गणना क्रम में वास्तविक रीति इस प्रकार से हैं-सभी नक्षत्र अभिजित से लेकर उत्तराषाढा पर्यन्त परिगणित करने को प्रतिपादित किया है। कारण की सर्वत्र कारण विशेष की अपेक्षा रहती है यहां पर इस प्रकार की युक्ति कही है-यहां पर सभी सुषमसुषमादि रूप काल विशेष आदि युग है, आगम ग्रन्ध में कहा भी हैધનિષ્ઠા નક્ષત્રથી લઈને શ્રવણ સુધીના કહે છે. (૪) ચોથે મતાવલમ્બી અશ્વિનીથી લઈને રેવતી સુધીના ગણે છે. (૫) તથા પાંચ તીર્થાન્તરીય ભરણી નક્ષત્રથી લઈને અશ્વિની નક્ષત્ર સુધીના ગણે છે. આ પ્રમાણે પરતીથિકની પ્રતિપત્તિનું કથન કરીને હવે વાસ્તવિક વસ્તુતત્વ २१३५थी पोताना भतनु ४थन ४२ छ, (वयं पुण एवं वयामो) स४८ १स्तुतत्वना २१३५ने યથાર્થપણાથી જાણનાર હું આ વિષયમાં વફ્ટમાણ પ્રકારથી આ વિષયના વસ્તુતત્વને કહું छु ते २मा प्रमाणे छ. (ता सव्वे विणं णक्खत्ता अभिई आदिया उत्तरासाढा पज्जवसाणा पण्णत्ता तं जहा-अभिई, सवणो, जाव उत्तरासाढा) नक्षत्रना । मम त४ि शत આ પ્રમાણે છે–બધા નક્ષત્ર અભિજીતથી લઈને ઉત્તરાષાઢા પર્યન્તના ગણત્રી કરવાનું પ્રતિપાદન કરેલ છે. કારણ કે બધે જ કારણ વિશેષની અપેક્ષા રહે છે, અહીંયાં આ રીતે યુક્તિ કહેલ છે.–અહીંયાં બધા સુષમ સુષમાદરૂપ કાળ વિશેષ આદિ યુગ છે, આગમ શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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