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________________ ५५२ सूर्यप्राप्तिसूत्रे अथैषां पर्वतानां यथाक्रमेण नामानि-मन्दरः (१) मेरुः (२) मनोरमः (३) सुदर्शनः (४) स्वयंप्रभः (५) गिरिराजः (६) रत्नोच्चयः (७) शिलोच्चयः (८) लोकमध्यः (९) लोकनाभिः (१०) अच्छ: (११) सूर्यावर्तः (१२) सूर्यावरणः (१३) उत्तमः (१४) दिगादिः (१५) अवतंसः (१६) धरणिकीलः (१७) धरणिश्रृङ्गः (१८) पर्वतेन्द्रः (१९) पर्वतराजः (२०) एतेषां पर्वतनाम्नां व्युत्पत्तिवाक्यानि पञ्चमप्राभृते २६ सूत्रटीकायां सम्यग् व्याख्यातान्येव पुनरत्रपिष्टपेषणेनालम् ॥ तदेव मुक्ताः परतीर्थिकप्रतिपत्तयः सम्प्रति भगवान् स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण एवं वयामो' वयं पुनरेवं वदामः ॥ वयं-केवलज्ञानाः वयं पुनरेवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामःकथयामः । तमेव प्रकारमाह-'ता मंदरे वि पवुच्चइ तहेव जाव पव्वयराएवि पवृच्चइ' ___ उपर में कहे गये अन्य मतवादी के कहे हुवे पर्वतों के क्रमानुसार नाम कहते हैं-मंदर (१) मेरु (२) मनोरम (३) सुदर्शन (४) स्वयंप्रभ (५) गिरिराज (६) रत्नोच्चय (७) शिलोच्चय (८) लोकमध्य (२) लोकनाभि (१०) अच्छ (११) सूर्यावर्त (१२) सूर्यावरण (१३) उत्तम (१४) दिगादि (१५) अवतंस (१६) धरणीकिल (१७) धरणिशृङ्ग (१८) पर्वतेन्द्र (१९) पर्वतराज (२०) इन पर्वतों की व्युत्पत्तिदर्शकवाक्यपद्धति पांचवें प्राभृत म० २६ की टीका में सम्यक प्रकार से कही गई है अतः यहां पर पुनः कथन करके पिष्टपेषण नहीं करते हैं। पूवोंक्त प्रकार से परतीभिकों के मतदर्शन रूप प्रतिपत्तियां कही अब भगवान् इस विषय में स्वमत का कथन करते हैं-(वयं पुण एवं वयामो) मैं इस विषय में इस प्रकार से कहता हूं अर्थात् केवलज्ञानधारी मैं इस वक्ष्यमाण प्रकार से इस विषय में कहता हूं। वही प्रकार को दिखलाते हुवे कहते हैं-(ता मंदरेवि पवुच्चइ तहेव जाव पवयराएवि पवुच्चई) मन्दर पर्वत भी આ પૂર્વોક્ત અન્ય મતાવલમ્બીયાએ કહેલાં પર્વતના ક્રમ પ્રમાણેના નામો કહેવામાં આવે छे, मह२ (१) भे३ (२) मनोरम (3) सुशन (४) स्वयंस (५) () रत्नोग्यय (७) शिव्यय (८) समय (6) सोनालि (१०) २५२७ (११) सूर्यावत (१२) सूर्या१२५] (13) उत्तम (१४) हा (१५) यवत स (१६) डिस (१७) घर (१८) ५. તેન્દ્ર (૧૯) પર્વતરાજ (૨૦) આ પર્વતની વ્યુત્પત્તિદશક વાક્યપદ્ધતિ પાંચમાં પ્રભૂત સૂત્ર ૨૬ ની ટીકામાં સારી રીતે કહેલ છે. તેથી અહીયાં ફરીથી કહીને પિષ્ટપેષણ કરેલ નથી. પૂર્વોક્ત પ્રકારથી પરતીથિકના મત પ્રદર્શન રૂપ પ્રતિપત્તિ કહી હવે ભગવાન मा विषयमा पोताना मतपत ४थन ४२ छ-(वयं पुण एवं वयामो) हुँमा विषयमा આ પ્રમાણે કહું છું અર્થાત્ કેવળજ્ઞાનને ધારણ કરનાર હું આ વાક્યમાણ પ્રકારથી આ विषयमा छु-से 1२ पqni ४ छ-(ता मंदरेवि पवुच्चइ तहेव जाव पव्वयरायेवि पवुच्चइ) भ.४२ पर्वत ४ छ भने यावत् ५ त२।१४ ५४ हे छ, अर्थात हे या શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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