SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयप्रज्ञप्तिसूत्रे नास्त्येतत् यदुत पञ्चदशमुहूर्तोऽपि दिवसो भवति, नाप्यस्त्येतद् , यदुत पञ्चदशमुहूत्त रात्रिरपि भवतीति । तत्र एवं विधे वस्तुतत्त्वावगमे को हेतुः ?-किं कारणम् कया वा युक्त्या इति प्रतिपत्तव्यमिति भावार्थः । इति वदेजा वद-प्रणतं मां सरलेन बोधय । भगवानाह'ता अयणं जंबुद्दीवे २ सव्वदीवसमुदाणं सव्वभंतराए जाव विसेसाहिए परिक्खेवेर्ण पण्णत्ते' तावद' अयं खलु जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरो यावद विशेपा. धिकः परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । अर्थाद् अयं प्रत्यक्षत उपलक्ष्यमानो जम्बूद्वीपो मध्यजम्बूद्वीपनामा द्वीपो वर्तते, स च सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तर:-सर्वमध्यवर्ती, सर्वेषामपि शेषद्वीपसमुद्राणामित आरभ्य यथागमोक्तक्रम द्विगुणविष्कम्भतया समुद्रद्वीपा भवन्ति, अर्थात् सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां ये विष्कम्भा अग्रे प्रोक्तास्तेषु जम्बूद्वीपापेक्षया अन्येषां समुद्रद्वीपानां द्विगुण२ तया विष्कम्भो भवति । तेन सर्वेषां शेषद्वीपसमुद्राणामारम्भो जम्बूहोता है । तथा पहला या दूसरे षट्मास में इस प्रकार नहीं है परंतु पन्द्रह मुहर्त का दिवस होता है तथा पन्द्रह मुहूर्त की रात्री होती है। उसमें इस प्रकार से वस्तुतत्व का बोध होने में क्या हेतु है ? क्या कारण है ? अथवा किस युक्ति से विश्वसनीय है ? (इति वएज्जा) यह नमस्कार करते हुवे मुझे कहिये । इस प्रश्नका उत्तर देते हुवे श्री भगवान् कहते हैं-(ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुदाणं सव्वम्भंतराए जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते) यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सर्वद्वीपसमुद्रों में यावत् परिक्षेप से विशेषाधिक कहा है । अर्थात् यह प्रत्यक्ष से उपलक्ष्यमान जम्बूद्वीप मध्य जम्बूद्वीप नाम का द्वीप है वह सब द्वीप समुद्रों का सर्व मध्यवर्ती सभी शेष द्वीप समुद्रों का यहाँ से आरम्भ कर के आगमोक्त क्रम से दुगुना विष्कम्भ वाले समुद्र और द्वीप होते हैं अर्थात् सभी द्वीप समुद्रों का जो विष्कम्भ पहले कहा है उनमें जम्बूद्वीप की अपेक्षा से अन्य द्वीपसमुद्रों का दुगुना दुगुना विष्कम्भ होता है માસમાં એ રીતે હોતું નથી પરંતુ પંદર મુહૂર્તનો દિવસ હોય છે. તથા પંદર મુહૂર્તની રાત હોય છે. તેમાં એ રીતે વસ્તુતત્વનો બોધ થવામાં શું હેતુ છે? શું કારણ છે? અથવા / युतिथी से विश्वसनीय थाय छ ? (इति वएज्जा) से न ४२ता मेवा भने सातवी. ___या प्रश्नाने उत्तर आता प्रभुश्री ४६ छ-(ता अयणं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुदाणं सव्वभंतराए जाव विसेसाहियाए परिक्खेवणं पण्णत्ते) 241 पूदी५ नोमनी दी५ सय १५સમુદ્રમાં યાવત્ પરિક્ષેપથી વિશેષાધિક કહેલ છે. અર્થાત આ પ્રત્યક્ષ દેખાતો જંબુદ્વીપ મધ્ય જંબુદ્વીપ નામને દ્વીપ છે. તે બધા જ દ્વીપ સમુદ્રોની મધ્યવર્તી એટલે કે બધા જ શેષદ્વીપ સમુદ્રોને અહીંયાથી આરંભ કરીને આગમોક્ત ક્રમાનુસાર બમણ વિષુભવાળા સમુદ્રો અને દ્વીપે હોય છે. અર્થાત્ બધા દ્વીપસમુદ્રોના જે વિષ્કભ પહેલાં કહેલ છે. તેમાં જબૂદ્વીપની અપેક્ષાથી બીજા દ્વીપસમુદ્રોને બમણ બમણે વિશ્કેલ હોય છે, શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy