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________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सूं० २५ चतुर्थ प्राभृतम् ४१ एताः सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपा इति एता व्युदस्य स्वमत मेताभ्यो भिन्नमेव भगवानुपदर्शयति-'वयं पुण एवं वयामो' वयं पुनरेवं वदामः । वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानाः, केवलज्ञानेन च यथावस्थितं वस्तुतत्वमुपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः-कथयाम:, तमेव प्रकार माह-'ता उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता' तावदूर्ध्वमुखकलम्बुकपुष्पसंस्थिता तापक्षेत्रसस्थितिः प्रज्ञप्ता ॥ ऊध्वमुखस्य कलम्बुकापुष्पस्यकदम्बपुष्पस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्याः सा तथा, तापक्षेत्रसंस्थितर्मया प्रज्ञप्ता सा कथं भूतेत्यत आह--'अंतो संकुडा बाहि वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिथुला, अतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठिया उभओ पासेणं तीसे दवे बाहाओ अवडियाओ भवंति पणतालीस पणयालीसं जोयणसहस्साई आयामेणं तीसे दुवे बाहाओ अणवट्ठियाओ भवंति' अन्तः संकुचिता बहि विस्तृता अन्तर्वृत्ता बहिः पृथुला अन्तः अङ्कमुखसंस्थिता बहिः स्वस्तिकमुख भगवान् इन सब के कथन से भिन्न प्रकार का अपने मत को प्रकट करता हुवा कहते हैं कि (वयं पुण एवं वयामो) में इस विषय में इस प्रकार से कहता हूं। कहने का भाव यह है कि उत्पन्न केवल ज्ञानवाले में केवलज्ञान से यथावस्थित वस्तुतत्व को सम्यक्तया जानकर के इस वक्ष्यमाण प्रकार के कहता हूं। वह प्रकार दिखलाते हुवे भगवान् कहते हैं-(ता उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता) उर्ध्वमुख कलंयुकापुष्प के संस्थान जैसी तापक्षेत्र की संस्थिति कही है। अर्थात भगवान कहते हैं कि ऊपर की ओर जिस का मुख है इस प्रकार का जो कलंबुका पुष्प उसके आकार की प्रकाशक्षेत्र की संस्थिति होती है। वह किस प्रकार से होती है। दिखलाते हुवे पुनः कहते हैं 'अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं पिथुला अंत्तो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठिया उभओ पासेणं तीसे दवे बाहाओ अवटियाओ भवंति पणतालोसं पणतालीसं ओयणसहस्साहं आयामेणं तोसे दुवे बाहाओ अवप्राथी पाताना मतना समयमा ४थन ४२ता छ -(वयं पुण एवं वयामो) हुमा વિષયના સંબંધમાં આ પ્રમાણે કહું છું કહેવાને ભાવ એ છે કે ઉત્પન્ન કેવળજ્ઞાનવાળે હું કેવળજ્ઞાનથી યથાવસ્થિત વસ્તુતત્વને સારી રીતે જાણીને આ વક્ષ્યમાણ પ્રકારથી કહું છું से १२ मतावतi सगवान् ४ छ -ता उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता) व भु५ ४ मु पना सस्थान वा तापक्षेत्रनी स्थिति ही छे. अर्थात् ભગવાન કહે છે કે-ઉપર તરફ જેનું મુખ છે, એવા પ્રકારનું જે કલંબુકા પુષ્પ તેના જેવા આકારની પ્રકાશક્ષેત્રની સંસ્થિતિ હોય છે. આ કેવી રીતે થાય છે? તે બતાવતાં शथी ४ छे (अंतो संकुडा बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहि पिथुला अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सत्थिमुहसंठिया उभओ पासेणं तोसे दुवे बाहाओ अवद्रियाओ भवंति पणतालीसं पणतालीस जोयणसहस्साई आयामेणं तीसे दुवे बाहाओ अष्ट्रियाओ भवंति) म४२ सन्धित महारानी શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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