SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३८ सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रे मतमिति । ' एगे पुण एवमाहंसु-ता निज्जाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाह - सु १२ ' एके पुनरेव माहुस्तावद् निर्याणसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, एके एवमाहुः १२ । एके - द्वादशस्थानीया स्तीर्थान्तरीयाः पुनरेवं वदन्ति यत् चन्द्रसूर्ययोस्तापक्षेत्रसंस्थिति स्तु निर्याणसंस्थिता वर्त्तते, पुरस्य निर्गमनमार्गों निर्याणमित्युच्यते, तस्येव संस्थितं - संस्थानं यस्याः सा तथेत्यपरेषामभिप्रायेण वक्तव्येति ||१२|| 'एगे पुण एवमाहंसु - ता एगओ णिसघसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु १३' एके पुनरेवमाहु स्तावद् एकतो निपधसंस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, एके एव माहुः १३ । एके पुनस्त्रयोदशस्थानीया मतान्तरवादिनः पुनरेवम् - अनन्तरोच्यमानस्वरूपं स्वमतमाहुः - कथयन्ति तावदिति प्राग्वत् एकतः = रथस्यैकस्मिन् पार्श्वे यो नितरां सहते स्कन्ध पृष्ठे वा समारोपितो भार - हवा मतवादी इस प्रकार कहता है । ११ ( एगे पुण एवमाहंसु-ता निजाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता एगे एवमाहंस) १२ कोई एक कहता है की निर्याण के संस्थान जैसे तापक्षेत्र की संस्थिति कही है अर्थात् कोई एक बारहवां तीर्थान्तरीय इस प्रकार कहता है कि चन्द्र सूर्य के तापक्षेत्र की संस्थिति निर्माण के जैसे संस्थित है । नगर से निकलने का मार्ग को निर्याण मार्ग कहते हैं उसके जैसे संस्थित जो संस्थान वह निर्याणसंस्थित कहा जाता है इस प्रकार तापक्षेत्र की संस्थिति होती है इस प्रकार बारहवां मतावलम्बी कहता है | १२ | ( एगे पुण एवमाहंसु ता एगओ णिसघसंठिया तावक्रखेत्तसंठिई पण्णत्ता एगे पुण एवमाहंसु ) कोइ एक मतवादी एकताः निषधसंस्थित तापक्षेत्र संस्थिति कही है कोई इस प्रकार कहता है । अर्थात् तेरहवां मतान्तरीय अनन्तर कथ्यमान प्रकार से अपने मत को प्रगट करता हुवा कहता है कि एकतः माने रथ के एक भाग में रखा हुवा अथवा स्कंध के एक भाग में रखा उहेस छे, अगीयारभो भतवाही या प्रमाणे पोताना भतनु अथन उरे छे, ॥११॥ ( एगे पुण एवमाहं सु-ता निज्जाणसंठिया तावक्खेतसंठिई पण्णत्ता, एगे एबमाहंसु ) अर्ध उ उ छे ! - નિર્માણના સંસ્થાનના જેવી તાપક્ષેત્રની સસ્થિતિ કહેલ છે અર્થાત્ કોઈ એક ખારમે તીર્થંન્તરીય એવી રીતે કહે છે કે-ચંદ્ર સૂર્યંના તાપક્ષેત્રની સંસ્થિતિ નિર્માણની જેમ સ સ્થિત છે, નગરમાંથી નીકળવાના માર્ગોને નિર્માણ મા કહે છે. તેના જેવું સંસ્થિત જે સંસ્થાન તે નિર્માણુસંસ્થિત કહેવાય છે. આ પ્રમાણે તાપક્ષેત્રની સંસ્થિતિ હેાય છે. આ પ્રમાણે ખારમે भतावसंगी हे छे. 1121 ( एगे पुण एवमाहंसु ता एगओ णिसधसंठिया ताबक्खेत्तसंठिई पण्णत्ता एगे पुण एवमाहंसु ) १३ ६ ४ भतवाही आहे छे -स्तः निषेध संस्थानथी संस्थित તાપક્ષેત્રની સસ્થિતિ કહી છે, કોઈ એક આ પ્રમાણે કહે છે. અર્થાત્ તેરમે મતાન્તરવાદી આ અનન્તર કર્થ્યમાન પ્રકારથી પેાતાના મતને પ્રગટ કરતા કહે છે કે એકતઃ એટલે કે રથના એક ભાગમાં રહેલ કે સ્ક ંધની એક ખાજી રહેલ ભારને નિષધ કહેવાય છે. એટલે કે શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy