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________________ सूर्यज्ञतिप्रकाशिका टीका सू० २४ तृतीयं प्राभृतप्राभृतम् ३८५ नीत्यर्थः । तद्यथा - ' तत्थ एगे एवमाहंसु १' तत्र एके एवमाहुः १ ॥ - तत्र - तासु प्रतिपत्तिषु द्वादशानां परतीर्थिकानां मध्ये एके प्रथमा स्तीर्थान्तरीया एवं वक्ष्यमाणप्रकारकं स्वमतमाहुः कथयन्ति तद्यथा तन्मतम् 'ता एगं दीवं एगं समुदं चंदिमसूरिया ओभासंति उज्जो - तितति पाति, एगे एवमाहंसु १' तावत् एकं द्वीपम् एकं समुद्रं चन्द्रसूर्यौ अवभासयत उद्योतयतः तापयतः प्रकाशयतः, एके एवमाहुः १ ॥ - तावत्-तासु - द्वादशप्रतिपत्तिषु प्रथमस्य मतं तावत् श्रूयताम्, स एवं कथयति चरन्तौ चन्द्रसूर्यौ एक द्वीपम् एकं समुद्रम् अवभासयत उद्योतयतः तापयतः प्रकाशयत वारं चरत इति । अत्र सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्रयुक्तं प्राकृतत्वात् उक्तञ्च - 'बहुवणेण दुवयणं' इति दर्शनात्, तात्त्विकं चात्र द्विवचनमवसेयं, यतोहि परतीर्थिकै रेकस्य चन्द्रमस एकस्य च सूर्यस्याभ्युपगमात् । अथास्यैवोपसंहारमाह - एके (तत्थ एगे एवमाहंस) उन प्रतिपत्तिवादी बारह परतीर्थिकों में कोई एक पहला परतीर्थिक इस वक्ष्यमाण प्रकार से अपने मत के विषय में कहता है । वह इस प्रकार से कहता है - ( ता एगं दीवं एगं समुदं चंदिमसूरिया ओभासंति, उज्जोवेति तवेंति पगासेंति एगे एवमाहंसु ) १ उन प्रतिपत्तिवादियों में बारह परतीर्थिकों में पहला तीर्थान्तरीय इस वक्ष्यमाण प्रकार से अपने मत को कहते हैं प्रथम परतीर्थिक का मत सुनो वह इस प्रकार से कहता है - गमन करते हुवे चन्द्रसूर्य एक द्वीप एवं एक समुद्र को अवभासित करता है उद्योतित करता तापित करता एवं प्रकाशित करता गमन करते हैं। यहां सूत्र में द्विवचन के स्थान में बहुवचन का प्रयोग किया है सो प्राकृत होने से कहा है कहा भी है- (बहुवयणेण दुवयणं) इस प्रकार के प्रमाण से वह प्रयोग यथार्थ ही है । वास्तविक तो यहां पर द्विवचन समझना उचित है क्योंकि परतीर्थिकों के मत से एक चन्द्र एवं एक सूर्य इस प्रकार से कहा प्रतिपादन श्वावाजी आहेस छे. अर्थात् परतीर्थिओना भतान्तरो मावेना छे, 'तत्थ गे एवमाहंसु' मे प्रतिपत्ती वादी मार परतीथि अमां अ ये प्रथम परतीर्थिक आ स्थ्यमान अमरथी पोताना भतना संबंधां उडे छे. ते या प्रमाणे हे छे. 'ता एवं दीवं एगं समुहं चंदिमसूरिया ओभासंति उज्जोवेंति तवेंति पगासेंति, एगे एवमाहंसु' से प्रतिपत्ति વાદીઓમાં પ્રથમ તીર્થાન્તરીય આ ફ્યમાણુ પ્રકારથી પેાતાના મત પ્રગટ કરે છે. અર્થાત્ પહેલા તીર્થાન્તરીય કહે છે કે-ગમન કરતા ચંદ્ર અને સૂર્ય એક દ્વીપ અને એક સમુદ્રને અવભાસિત કરે છે, ઉદ્યોતિત કરે છે. તાષિત કરે છે. અને પ્રકાશિત કરે છે. આ ઠેકાણે સૂત્રમાં દ્વિવચનના સ્થાનમાં બહુવચનના પ્રયોગ કરેલ છે. તે પ્રાકૃત હેાવાથી કરેલ છે. धुं पशु छे (बहुवयणेण दुवयणं) मा प्रहारना प्रभार्थी ते प्रयोग यथार्थ ४ छे. વાસ્તવિક તે અહીંયાં દ્વિવચન જ સમજવું જોઇએ કેમ કે-પરતીથિકાના મતથી એક ચદ્ર અને એક સૂર્ય એમ એ કહેલા છે. હવે આ કથનને ઉપસહાર કરતાં કહે છે કે શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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