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________________ १०३२ सूर्यप्राप्तिसूत्रे पञ्चदशभागान् , एवं यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशापि भागान् अनावृतान् करोति । तदा च सर्वात्मना परिपूर्ण चन्द्रमण्डलं लोके प्रकटं भवति । वक्ष्यति चामुमेवार्थमग्रेऽपि सूत्रकृत्'तत्थ णं जे से धवराह सेणं बहुलपक्खस्स पडिवए पाणरसभागेणं' इत्यादिना ग्रन्थेन । तत्र यावता कालेन कृष्णपक्षे षोडशो भागो द्वापष्टिभाग सत्क चतुर्भागात्मको हानिमुपगच्छति स तावान् कालविशेपः तिथिरित्युच्यते । तथा यावताकालेन शुक्लपक्षे षोडशमागो द्वाषष्टिभागसत्कभागचतुष्टयप्रमाणः परिवर्द्धते, यावत्प्रमाणः कालविशेषः तिथि भवति । उक्तं च-'सोलस भागा काऊण उड़वई हाय एत्थ पण्णरस ।। तित्तियमित्त भागे पुण्णोऽपि परिवहए जोण्हे ॥१॥ कालेण जेण हायइ सोलसभागो उ सा तिही होइ । तह चेव य बुड्डीए एवं तिहिणो समुप्पत्ती ॥२॥ को प्रकट करता है, द्वितीया में दो पंद्रह भागों को तृतीया में तीन पंद्रहवां भाग इस प्रकार यावत् पंद्रहवीं तिथिमें पंद्रह भागों को प्रकट करते हैं, तब सर्वात्मना परिपूर्ण चंद्रमंडललोक में प्रगट होता है, आगे भी सूत्रकार यही भाव कहते हैं-(तत्थ णं जे से धुवराह से णं बहुलपक्खस्स पडिवए पण्णरस भागेणं) इत्यादि से कहते हैं-जितना काल से कृष्णपक्ष में बासठिया चार भाग संबंधी हानी को प्राप्त होता है, उतने कालविशेष को तिथि कहते हैं, तथा जितना काल से शुक्लपक्ष में बासठिया सोलह भाग संबंधी चार भाग प्रमाण वर्द्धित होता है, उतने प्रमाणवाला कालविशेष तिथि कहा जाता है, कहा भी है सोलस भागा काऊण उडुबई हायएत्य पण्णरस । तित्तियमित्ते भागे पुण्णोऽपि परिवड्ए जोण्हे ॥१॥ कालेण जेण हायइ सोलसभागो उ सा तिही होइ। तहचेव य वुड्डीए एवं तिहीणो समुप्पत्ती ॥२॥ ભાગને પ્રગટ કરે છે. દ્વિતીયામાં બે પંદર ભાગને તૃતીયામાં ત્રણ પંદર ભાગોને એ રીતે યાવત્ પંદરમી તિથિએ પંદર ભાગોને પ્રગટ કરે છે, ત્યારે સત્યના પરિપૂર્ણ ચંદ્રમંડળ सोमi प्रगट थाय छे. 2011 ५५ सूत्रा२ मा मामाचे छ. (तत्थ णं जे से धुव. राहु से गं बहुलपक्खस्स पडिवए पारस भागे णं) छत्यादि सूत्रथा है, रेखा था કૃષ્ણપક્ષમાં બાસઠિયા ચાર ભાગ સંબંધી હાનીને પ્રાપ્ત થાય છે, એટલા કાળ વિશેષને તિથિ કહે છે, તથા જેટલા કાળથી શુકલ પક્ષમાં બાસઠિયા સોળ ભાગ સંબંધી ચાર ભાગ પ્રમાણ વધે છે એટલા પ્રમાણવાળે કાળવિશેષ તિથિ કહેવાય છે, કહ્યું પણ છે सोलस भागा काऊण उडवई, हायए तत्थ पण्णरस । तित्तियमित्ते भागे पुण्णोऽपि परिवड्ढए जोण्हे ।। १ ।। શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર: ૧
SR No.006351
Book TitleAgam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1981
Total Pages1076
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_suryapragnapti
File Size74 MB
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