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________________ ७२० प्रज्ञापनासूत्रे अनुत्तरौपपातिका देवाः खलु भदन्त ! कियत् क्षेत्रम् अधिना जानन्ति पश्यन्ति ? गौतम ! संभिन्न लोकनाडीम् अवधिना जनन्ति पश्यन्ति ।। सू०२॥ ____टीका-पूर्वोकरीत्याऽवधिज्ञानस्य भेदः प्रतिपादितः सम्प्रति तस्यैव विषयं प्रतिपादयितुमाह--नेरइयाणं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासं त ?' हे भदन्त ! नैरयिकाः खलु कियत् क्षेत्रम् - देशम् अवधिना अवधिज्ञानेन जानन्ति-विशेषरूपेण अवगच्छन्ति, सामान्यरूपेण पश्यन्ति च ? :भगवानाह-'गोयमा!' हे गौतम ! 'जहण्णे.णं अद्धगाउयं उक्कोसेण चत्तारि गाउयाई ओहिणा जाणंति पासंति' जघन्येन अर्द्धगव्यूतम् उत्कृष्टेन चत्वारि गव्य॒तानि यावत् नैरयिका अवधिना जानन्ति पश्यन्ति, तत्र जघन्येन अद्धगव्यूतं सप्तमपृथिव्यपेक्षया, उत्कृष्टेन चत्वारि गव्यूतानि च रत्नप्रापृथिव्यपेक्षयेत्यवसेयम्, ___ (अणुत्तरोववाइयदेवाणं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?) हे भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक देव अवधि से कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? (गोयमा ! संभिन्न लोगनालिं ओहिणा जाणंति पासंति) हे गौतम ! सम्पूर्ण लोकनाडी को अवधि से जानते देखते हैं । । सू. २॥ टीकार्थ-अवधि के भेदों का निरूपण पहले किया गया है, अब उसके विषय का प्रमाण प्रतिपादन किया जाता है गौतमस्वामी-हे भगवन् ! नारक जीव कितने क्षेत्र को अवधि के द्वारा जानते और देखते हैं ? अर्थात् ज्ञान द्वारा विशेष रूप से जानते हैं ? और दर्शन द्वारा सामान्य रूप से देखते हैं ? भगवान्-हे गौतम ! नारक जीव अवधि से जघन्य आधा गव्यूति (गाउ) और उत्कृष्ट चार गव्यूति तक जानते-देखते हैं। यहां जघन्य आधा गव्यूति सातवीं पृथिवी की अपेक्षा से समझना चाहिए और उत्कृष्ट चार गव्यूति रत्न (अणुत्तरोववाइयागं भंते ! केवइय खेत्तं ओहिणा जाणंति-पासंति) भगवन् ! अनुत्तरी५५ति है। पविया 24 त्रने ०nd-हेथे छ ? (गोयमा ! संभिन्नं लोगनालिं ओहिणा जाणंति पासंति) 3 गोतम ! सम्पू वा नाडी मवधियी ond-हेमे छे. ॥सू० २॥ ટીકાથી અવધિના ભેદ નું નિરૂપણ પહેલા કહેલું છે. હવે, તેના વિષયનું પ્રમાણ પ્રતિપાદન કરાય છે શ્રી ગૌતમસ્વામી–ડે ભગવદ્ ! નારક જીવ કેટલા ક્ષેત્રને અવધિ દ્વારા જણે અને દેખે છે? અથવું જ્ઞાન દ્વારા વિશેષરૂપથી જાણે છે અને દર્શન દ્વારા સામાન્ય ३५थी मे छ ? श्री मापा र गौतम ! ना२४०७१ अवधियी ४३.मधी २०यति (13) અને ઉત્કૃષ્ટ ચાર ગંભૂતિ સુધી જાણે–દેખે છે. અહીં જઘન્ય અડધી ગભૂતિ સાતમી પૃથ્વીની અપેક્ષાએ સમજવું જોઈએ. અને ઉત્કૃષ્ટ ચાર ગભૂતિ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની અપે શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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