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________________ प्रमे यबोधिनी टीका पद ३१ सू० १ संज्ञापरिणामनिरूपणम् ज्ञिनः, नो संझिनो नो असंझिनः, -नैरयिफतिर्यग्मनुष्याश्च वनचरासुरादयः संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च । विकलेन्द्रिया असंज्ञिनो ज्योतिष्कवैमानिकाः संज्ञिनः ॥ सू०१॥ प्रज्ञाएनायां संज्ञिपदं समाप्तम् ॥ ३१॥ टोका-त्रिंशत्तभे पश्यन्ताख्ये पदे ज्ञानपरिणामविशेषः प्रपितः, सम्प्रति एकत्रिंशत्तमे परिणामसादृश्याद गतिपरिणामविशेषलक्षणमेव संज्ञापरिणाम प्ररूपयितमाह-'जीचा गं भंते ! कि सणी असणी नोसपणी नोअसण्णी?' हे भदन्त ! जीवाः खलु कि संज्ञिनः-संज्ञा-अतीतानागतवर्तमानभावस्वभावपर्यालोचनलक्षणा विद्यते येषां ते संज्ञिनः मनोविज्ञान विशिष्टस्मृतिशालिनो भवन्ति ? किं वा असंज्ञिन:-पूर्वोक्तसंज्ञिविपरीता मनोसंज्ञी नो असंही नहीं हैं (सिद्धाणं पुच्छा ?) सिद्धों सम्बन्धी प्रश्न ? (गोयमा ! नो सपणी नो असण्णी) हे गौतम ! संज्ञी नहीं, असंही नहीं (नोसण्णी-नो असण्णी) नो संज्ञी नो असंज्ञी है। ___ (नेरइया तिरियमणुया य) नैरयिक, तिर्यच और मनुष्य (वणयरगसुराइ) वामपन्तर असुर आदि (सण्णी असणी) संज्ञी और असंज्ञी हैं (विगलिंदिया असण्णी) विकलेन्द्रिय असंज्ञी हैं (जोइसियवेमाणिया मण्णी) ज्योतिष्क और वैमानिक संज्ञी हैं। सू० १॥ संज्ञोपद समाप्त टोकार्थ-तीसवें पद में ज्ञान परिणाम विशेष रूप पश्यन्ता का निरूपण किया गया, अब इकतीसवें पद में परिणाम की सदृशता से गतिपरिणाम विशेष रूप संज्ञा परिणाम को प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं गौतमस्वामी-हे भगवन् ! जीव संझी होते हैं या असंज्ञी होते हैं अथवा नो संज्ञी नो असंज्ञी होते हैं ? संज्ञा का अर्थ है अतीत, अनागत और वर्तमान असण्णी) ना -नानसशी नथी (सिद्धाणं पुच्छा ?) सिद्धो सन्धी प्रश्न (गोयमा ! नो सण्णी, नो असण्णी) डे गौतम ! सनी नथी, मसी नथी. (नो सण्णी-नो असण्णी) ને સંજ્ઞી-ને અસંસી છે. (नेरइय तिरिय मणूसाय) नैयि, तिय भने मनुष्य (वणयरग सुराइ) पानव्यन्त२, असु२ मा (सण्णी, अखण्णी) सज्ञी भने मझी छ. (विगलिंदिया असण्णी) (Aarदयो मसभा छ (जोइसिय वैमाणिया सणी) ज्योति ने वैमानिम सशी छ. ॥ सू० १॥ ટીકર્થ –ત્રીસમા પદમાં જ્ઞાન પરિણામ વિશેષરૂપ પશ્યન્તાનું નિરૂપણ કરાયું. હવે એકવીસમાં પદમાં પરિણામની સરળતાથી ગતિ પરિણામ વિશેષ રૂપ સંજ્ઞા પરિણામની પ્રરૂપણું કરવાને માટે કહે છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન ! જીવસંગી હોય છે અગર અસંગી હોય છે અથવા તો નશી, ને અસંસી હોય છે? સંજ્ઞાનો અર્થ છે અતીત અનાગત અને વર્તમાન શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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