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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ३० सु० २ केवली ज्ञान सम्पत्तिनिरूपणम् ७५१ दिक्षु विदिक्षु च रत्नप्रभां पृथिवीं व्याप्य व्यवस्थितत्वात्, यं समयं यस्मिन् समये जानाति - आकारादिविशिष्टतया परिच्छित्ति तं समयं तस्मिन् समये किं पश्यति केवलदर्शन विषयी करोति ? एवं यं समयं यस्मिन् समये पश्यति केवलदर्शनविषयी करोति तं समयं तस्मिन् समये एव किं जानाति - आकारादिविशिष्टतया कि परिच्छिन्नति ? भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम! 'नो इण समट्ठे' नायमर्थः समर्थ:-नोक्तार्थी युक्त्योपपन्नः संभवति, गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति - ' से केलट्ठे णं भंते ! एवं बुच्चइ - केवली णं इमं रयणप्पभं पुढविं आगारेहिं जाव जं समयं जाणइ नो तं समयं पास्इ जं समयं पासइ नो तं समयं जाणइ ?' हे भदन्त ! तत् - अय, केनार्थेन--कथं तावत् एवम् उक्तरीत्या उच्यते यत्- केवली खल इमां रत्नप्रभां पृथिवीम् आकार यवित्-हेतुभिरुपमाभिर्दृशन्तै वर्णैः संस्थानैः प्रमाणैः प्रत्यवतारैश्च यस्मिन् समये जानाति नो तस्मिन् समये पश्यति, एवं यस्विन् समये पश्यति न तस्मिन् समये जानातीति ? भगवान् कारणमाह - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'सागा रे से णाणे भव्इ, अणागारे दधि आदि वलय सभी दिशाओं में और सभी विदिशाओं में रत्नप्रभा पृथिवी को व्याप्त कर के रहे हुए हैं, अतः वे प्रत्यवतार कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि क्या केवली भगवन आकारादि से रत्नप्रभा पृथिवी को जिस समय केवल ज्ञान से जानते हैं, उसी समय में केवलदर्शन से देखते भी हैं ? और जिस समय में केवलदर्शन से देखते हैं क्या उसी समय में केवलज्ञान से जानते भी हैं ? भगवान् उत्तर देते हैं- हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, अर्थात् यह बात युक्तिसंगत नहीं है । गौतमस्वामी - हे भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि केवली जिस समय इस रत्नप्रभा पृथिवी को आकारों, हेतुओं, उपमाओं दृष्टान्तों, वर्णों, संस्थानों प्रमाणों और प्रत्यवतारों से जिस समय में जानते हैं, उस समय में देखते नहीं और जिस समय में देखते हैं, उस समय में जानते नहीं ? भगवान् - हे गौतम ! केवली भगवान् का ज्ञान साकार अर्थात् विशेषों का પ્રભા પૃથ્વીને જાપ્ત કરીને રહેલા છે, તેથી તેએ પ્રત્યવતાર કહેવાય છે. તાત્પ એ છે કે શું કેવલી ભગવાન્ આકારાદિથી રત્નપ્રભા પૃથિવીને જે કેવલજ્ઞાનથી જાણે છે, તેજ સમયમાં કેલનથી દેખે પણ છે? અને જે સમયમાં કેવલ દશ નથી દેખે છે શું તે જ સમયમાં કેવલજ્ઞાનથી જાણે પણ છે! શ્રી ભગવાન ઉત્તર આપે છે-ડે ૌતમ! આ અર્થાં સમથ નથી, અર્થાત્ આ વાત યુક્તિ સંગત નથી. - શ્રી ગૌતમસ્વામી-હે ભગવન્ ! શા હેતુથી એમ કહેવાય છે કે કેવલી જે સમયે आ रत्नप्रभा पृथ्वीने मारे, हेतुयो, उपभागो, दृष्टान्तो, वर्षा, संस्थाना प्रभा। अने પ્રત્યવતારાથી જે સમયમાં દેખે છે, તે સમયમાં જાણતા નથી ? શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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