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________________ ६७४ प्रज्ञापनासूत्रे यदस्ति तस्य तत् पृच्छ यते, यस्य यन्नास्ति तस्य तन्न पृच्छय ते, यावद्-भाषामनःपर्याप्तापर्याप्तकेषु नैरयिकदेवमनुष्येषु षड्भङ्गाः, शेषेषु त्रिकभङ्गः । आहारकपदस्य द्वितीय उद्देशः समाप्तः । अष्टाविंशतितमं पदं समाप्तम् ।। २८ स० ९॥ ___टीका-प्रथाष्टमं ज्ञानद्वारमधिकृत्य प्ररूपयितुमाह-'णाणी जहा सम्मदिट्ठी' ज्ञानी यथा पूर्व सम्यग्दृष्टिः प्रतिपादितस्तथा प्रतिपत्तव्यः, एवञ्च एकत्वे एकेन्द्रियान् वर्जयित्वा समुच्चयजीवादि वैमानिकान्तविशतिदण्डकक्रमेण ज्ञानी कदाचिद अ हारकः कदाचिद अनाहारको भवति, बहुत्वे च समुच्चयजीया ज्ञानिन आहारका अपि अनाहारका अपि, नैरयिकादि पृच्छाके अनुसार (भाणियव्वा) कह ने चाहिए (जस्म जं अस्थि तं पुच्छिज्जइ) जिस जीच के जो है, उसके विषय में वह पूछना चाहिए (जस्त जं स्थि तस्स तं न पुच्छिज्जइ) जिसके जो नहीं है, उसके विषय में यह नहीं पूछा जाता (जाव) यावत् (भासामणपज्जत्ती अपज्जत्तप्तु) भाषामन:पर्याप्ति से अपर्याप्त (नेरइयदेवमणुएसु) नारकों, देवों, और मनुष्यों में (छम्भंगा) छह भंग (सेसेलु तियभंगो) शेषां में तीन भंग कहे गए हैं ।।सू०९॥ अठाईसा पद समाप्त टीकार्थ-अब आठवें ज्ञानद्वार को लेकर प्ररूपणा की जाती है-ज्ञानी की प्ररूपणा उसी प्रकार समझनी चाहिए जैसी पहले सम्यग्दृष्टि की की जा चुकी है। इस प्रकार एकत्व की अपेक्षा से एकेन्द्रियों को छोडकर समुच्चय जीव को आदि करके वैमानिक तक ज्ञानी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है । बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय ज्ञानी जीव आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं । नारकों से लेकर स्तनितकुमारों तक ज्ञानी जीवों में स्पनी विपक्षाथी (जीवादिया दंडगा) ७५थी सन १७५ (पुच्छाए) २४ानी अनुसार (भाणियव्वा) अडवा मे (जस्स जं अत्थि तस्स तं पुच्छिज्जइ) ने ना विषयमा छ, तना विषयमा ते पूछा से (जस्स जं णत्थि तस्स तं न पुच्छिज्जइ) नारे नथी, तना विषयमा ते नथी पूछाता (जाय) यावत् (भासामाणपज्जत्तो अपज्जत्तेसु) भाषामन:५तिथी १५. यात (नेरइयदेवमणुएसु) ना२31, हेवो, मनुष्यामा (छब्भंगा) ७ मा (सेसेसु तियभंगो) શેમાં ત્રણ ભંગ સૂ૦ લા અઠયાવીસમું પદ સમાપ્ત ટીકાઈ-હવે આઠમાં જ્ઞાન દ્વારને લઈને પ્રરૂપણા કરાય છે જ્ઞાનીની પ્રરૂપણા એ પ્રકારે સમજવી જોઈએ કે જેવી પહેલાં સમ્યગ્દષ્ટિની કરાયેલી છે. એ પ્રકારે એકત્વની અપેક્ષાથી એ કેન્દ્રિય સિવાય સમુચ્ચ જીવને આગળ કરીને વૈમાનિક સુધી જ્ઞાની કદાચિત આહારક અને કદાચિત અનાહારક હોય છે. બહત્વની અપેક્ષાથી સમુચ્ચય જ્ઞાની જીવ આહારક પણ અને અનાહારક પણ હોય છે. નાકેથી શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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