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प्रमेयबोधिनी टीका पद २८ सू० ८ सलेश्यादि जीवानामाहारकत्वादिनिरुपणम् ६४९ स्त्रिकभङ्गः, संयतासंयतः खलु जीयः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको मनुष्यश्च एते एकत्वेनापि पृथक्त्वेनापि आहारका नो अनाहारकाः, नो संयत नो असंपत नो संयतासंयतो जीव: सिद्धश्च, एते एकत्वेन पृथक्त्वेनापि नो आहारकाः, अनाहारका द्वारम् ६, सकपायी खलु भदन्त ! जीवः किम् आहारकः अनाहारकः ? गौतम ! स्यात् आ हारकः स्याद् अनाहारकः, एवं यावद् वैमानिकाः, पृथक्त्वेन जीवैकेन्द्रियवर्जस्त्रिकभङ्गः, क्रोधकषायिषु जीवादिषु एवचैव, नवरं देवेषु षड्भङ्गाः, मानकषायिषु मायाकषायिषु च देवनैरयिकेषु षड्भङ्गाः, अव
(संजयासंजए णं भते ! जीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणिए मणूसे य) हे भग वन् ! संयतासंयत जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य (एए एगत्तेण वि पुहत्तण वि आहारगा, नो प्रणाहारगा) ये तीनों एकत्व की विवक्षा से भी और पृथक्त्व की विवक्षा से भी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं (नोसंजए नोअसंजए नोसंजयासंजए जीवे) संयत नहीं, असंयत नहीं, संयतासंयत भी नहीं ऐसा जीव (सिद्धे य) और सिद्ध (एए एगत्तेण पोहत्तेण विनो आहारगा, अणाहारगा) ये एकत्व से भी और पृथक्त्व से भी आहारक नहीं, अनाहारक है।
(सकसाई णं भंते ! जीये किं आहारए, अणाहारए ?) हे भगवन ! सकषाय जीव क्या आहारक होता है अथवा अनाहारक ? (गोयमा ! सिय आहारए, सिय अणाहारए) कदाचित् आहारक कदाचित अनाहारक (एवं जाय वेमाणिया) इसी प्रकार वैमानिकों तक (पहत्तेणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो) बहत्य की अपेक्षा से जीव और एकेन्द्रिय को छोडकर तीन भंग (कोहकसाई जीवादीसु एवं चेय) क्रोधकषायी जीवादि में इसी प्रकार (नवरं देयेसु छन्भंगा) विशेष, જીમ અને એકેન્દ્રિય સિવાય ત્રણ ભંગ.
(संजयासंजए ण भते ! जोवे पंचिंदियतिरिक्खजोणिए मणूसे य)-3 भगवन! सयतासयत ७५ ५येन्द्रिय तियय अने मनुष्य (एए एगत्तेण वि पुहुत्तेण वि आहारगा नो अणाहारगा) मात्रये सत्पनी विपक्षाथी ५५ अने पृथ४.५नी (१५१ थी ५९ साहा२४ डाय छ, मनाहा२४ नही (नो संजए नो असंजए नो संजयासंजए जीये) सयत नही', मसयत नहीं सयतासयत ५९ नहीं, मेयो ७५ (सिद्धे य) सने सिद्ध (एए एगत्तेण पोहत्तेण विनो आहारगा, अणाहारगा) तेथे। मेथी ५५ अने पृथयथा ५४४ माहा२४ नथी, मनाहा छ
(सकसाईणं भते ! जीये कि आहारए, अणाहारए)-डे मापन ! ४४५५ ७५ शु माह:२४ हाय छे अ५॥ सन २४ ? (गोयमा ! सिय आहारए, सिय अणाहारए) हथित आहा२४ भने ४यित् अन ४ छोय छे. (एवं जाव वेमाणिया) मे १२ वैमानि। सुधी (पुहुत्तण जीवेगि दियवज्जो तियभंगो) मत्पनी अपेक्षाथी ०५ भने मेन्द्रिय સિવાય ત્રણ ભંગ જાણવા.
(कोहकमाई जीवादिसु एव चेय) अधपायी पाहिमा मे ५१२ (नवरं देवेसु
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫