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________________ ६१३ प्रज्ञापनासूत्रे पुद्गला उष्णं प्राप्य उष्णञ्चैव अतिव्रज्य खलु तिष्ठन्ति एवमेव तै देवै मनोभक्षणे कृते सति तद् इच्छामनः क्षिप्रमेय अपैति ॥ सु० ६ ॥ आहारपदस्य प्रथमः उद्देशः समाप्तः ।। २८-१ ॥ टीका - अथ अन्तिमम् अर्थाधिकारमुद्दिश्य प्ररूपयितुमाह- 'नेरइया णं भंते ! किं ओयाहारा, मणभक्खी ?' हे भदन्त ! नैरविकाः खलु किम् ओज आहारा:- - उत्पत्तिदेशे आहार योग्यपुद्गलसमूहरूपम् ओजः आहारो येषां ते ओज आहारा भवन्ति ? किं वा मनोभक्षिणः - मनसा भक्षयन्तीत्येवं शीला मनोभक्षिणो भवन्ति ? भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'ओयाहारा णो मणभक्खी' नैरयिका स्तावद् ओज आहारा भवन्ति, नो मनोचेव अइवइत्ताणं) शीतता को ही प्राप्त होकर (चिट्ठेति) रहते हैं (उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प) अथवा उष्ण पुद्गल उष्ण स्वभाव वाले को प्राप्त कर (उसिणं चेव अइवइत्ताणं चिति) उष्ण होकर ही रहते हैं (एवामेव) इसी प्रकार (देवेहिं) देवों द्वारा (मणभक्खीकए समाणे) मन से भक्षण कर लेने पर ( से इच्छामणे) वह इच्छा प्रधान मन (खिप्पामेव) शीघ्र ही (अवेइ ) हो जाता है - सन्तुष्ट हो जाता है || सू०६ ॥ आहारपद का प्रथमोद्देशक समाप्त टीकार्थ- अब अन्तिम अर्थाधिकार का निरूपण किया जाता है गौतमस्वामी - हे भगवन् ! नारक जीव ओजाहारी होते हैं अथवा मनोभक्षी होते है ? उत्पत्तिप्रदेश में आहार के योग्य पुद्गलों का जो समूह होता है, वह ओज कहलाता है । उस ओज का आहार करने वाले ओजाहारी कहे जाते हैं । जो मन से भक्षण करने वाले हों वे मनोभक्षी । भगवान् - हे गौतम! नारक जीव ओजाहारी होते हैं, मनोभक्षी नही शीतताने प्राप्त थने ( चिट्ठति) २७ ( उसिणा वा पोग्गला उसिण पप्प) अथवा चुइँगल उष्णुस्वाभाव वाणाने आत उरीने (उसिणं' चेव अइयत्ता णं चिट्ठति) उपशु मनीनेक हे (एवमेव प्रारे (देवेहि) हेवेो द्वारा (मणभक्खीकए समाणे) भनथी लक्षण री येतां (से इच्छामणे) तेरा प्रधान भन (खिप्पामेव ) शीघ्र (अवेइ) सन्तुष्ट यर्ध लय छे, सू०६ ॥ આહારક પદના પ્રથમ ઉદ્દેશક સમાપ્ત ટીકા: હવે અન્તિમ અર્થાધિકારનું નિરૂપણ કરાય છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી—હે ભગવન્! નારક જીવ એજાહારી હેાય છે ભક્ષી હોય છે? ઉત્પત્તિ પ્રદેશમાં આહારને ચેાગ્ય પુદ્ગલેના જે સમૂહ હાય કહેવાય છે. તે આજના આહાર કરનારા આજાહારી કહેવાય છે. જે મનથી ભક્ષણ કરનારા હોય તે મનેાભક્ષી જાણવા. શ્રીભગવાન-હે ગૌતમ! નારક જીવ આજાહારી હાય છે, મનેાલક્ષી નથી હોતા. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫ અથવા લેમ તે આજ
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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