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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २८ सू० ४ द्वीन्द्रियादीनां सचित्ताहारादिनिरूपणम् ५७५ घ्राणेन्द्रियविमात्रतया, जिहूवेन्द्रियविमात्रतया स्पर्शनेन्द्रियविमात्रतया भूयो भूयः परिणमन्ते, मनुष्या एवञ्च, नगरम् आभोगनिर्वर्तितो जघन्येन अन्तर्मुहूर्तस्य उत्कृष्टेन अष्टमभक्तस्य आहारार्थः समुत्पद्यते, वानव्यन्तरा यथा नागकुमारः, एवं ज्योतिष्का अपि, नवरम् आभोग निर्वर्तितो जघन्येन दिवसपृथक्त्वस्य, उत्कृष्टेन दिवसपृथवत्वस्य आहारार्थः समुत्पद्यते, एवं वैमानिका अपि. नवरम् आभोग निर्वर्तितो जघन्येन दिवसपृथक्त्वस्य उत्कृष्टेन लिए जो पुद्गल आहार के रूप में, इत्यादि प्रश्न ? (गोयमा ! सोइंदियवेमायत्ताए चक्खिदियवेनावत्ताए घाणिंदियवेमायत्ताए जिभिदियवेमायत्ताए फासिंदियमातार) हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय की विमात्रा से, चक्षुरिन्द्रिय की विमात्रा से, घ्राणेन्द्रिय की विमात्रा से, जिवेन्द्रिय की विमात्रा से, स्पर्शेन्द्रिय की मात्रा से (भुज्जो भुग्जो परिणमंति) पुनः पुनः परिणत होते हैं (मणूसा एवं चेत्र) मनुष्य इसी प्रकार (णवरं) विशेष (आभोगनिव्यत्तिए जहणेणं अंतोमुहुत्तस्स) आभोगनिर्वर्त्तित आहार जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त में (उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स) उत्कृष्ट अष्टम भक्त से (आहारट्ठे समुप्पज्जइ) आहार की इच्छा उत्पन्न होती है । (वाणमंतरा जहा नागकुमारा) वानव्यन्तर जैसे नागकुमार ( एवं जोइसिया चि) इसी प्रकार ज्योतिष्क भी (नवरं ) विशेष (आ भोगनिव्यतिए जहण्णेणं दिवसपुहुत्तस्स) आभोगनिर्वर्त्तित आहार जघन्य दिवसपृथक्त्व में (उक्को सेणं दिवसपुत्तस्स) उत्कृष्ट दिवस पृथक्त्व में (आहारट्ठे समुप्पज्जइ) आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। ( एवं वैमाणिया वि) इसी प्रकार वैमानिक भी (णवरं) विशेष (आभोगમાટે જે પુદગલ અહારનારૂપમાં ઈત્યાદિ પ્રશ્ન ? (गोयमा ! सोइंदियवेमायत्ताए चक्खि दियवेमायत्ताए घाणि दियवेमायत्ताए जिब्भिंदिवेमायत्ता फासि दियवेमायत्ताए ) - हे गौतम! श्रोत्रेन्द्रियनी विभात्राथी, यक्षुरिन्द्रियनी विभाત્રાથી, ઘ્રાણેન્દ્રિયની વિમાત્રાથી, જિન્હાઈન્દ્રિયની વિમાત્રાથી, સ્પર્શેન્દ્રિયની વિમાત્રાથી (भुज्जो भुज्जो परिणमंति) पुन: पुन: परिणत थाय छे. ( मणूसा एवं चेव ) मनुष्य योन प्रारे (गवर) विशेष (आभोगनिव्यत्तिए जहणणेणं अतो मुहुत्तस्स) आलोगनिवर्तित भाडार नृधन्य अन्तर्मुहूर्तभां (उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स) उत्कृष्ट अष्टम लस्तथी (आहारट्ठे समुपज्जइ) महारनी हरिछा उत्पन्न थाय छे. ( वाणमंतरा जहा नागकुमारा) वानव्यन्तर भेवा नागकुमार ( एवं जोइसिया वि) २०४ प्रहार भयो तिष्ठ पशु (नवरं ) विशेष (आभोगनिव्वत्तिए जहणेणं दिवसपुहुत्तस्स) मलोगनिपर्तित आहार धन्य द्विवस पृथक्त्वमां (उक्कोसेणं दिवसपुहुत्तस्स) उत्कृष्ट हिवस पृथत्वमां (आहारट्ठे समुपज्जइ) आहारनी अभिलाषा उत्पन्न थाय छे, શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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