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________________ प्रज्ञापनासूत्रे स्लाणं, उवरिमउवरिमाणं पुच्छा, गोयमा ! जहणणं तीसाए० उकोसेणं एगनीसाए वाससहस्ताणं, विजयवेजयंतजयंतअपराजियाणं पुच्छा, गोयमा! जहणेणं एगतीसाए वाससहस्ताणं उकोसेणं तेत्तीसाए बाससहस्साणं, सव्वटुगसिद्धदेवाणं पुच्छा, गोयमा! अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं आहारट्रे समुप्पज्जइ” ॥ सू०४॥ छाया-द्वीन्द्रियाः खलु भदन्त ! आहारार्थिनः ? हन्त, आहारार्थिनः, द्वीन्द्रियाणं भदन्त ! कियता कालेन आहारार्थः समुत्पद्यते ? यथा नायिकाणाम् नवरं तत्र खलु योऽसौ आभोगनिर्वतितः स खलु असंख्येयसामयिकः अन्तर्मुहूतिको विमात्रया आहारार्थः समुस्पद्यते, शेषं यथा पृथिवीकायिकानाम्, यावद आहत्य निःश्वसन्ति, नवरं नियमात् पइदिशि, द्वीन्द्रियाणां भदन्त ! पृच्छ। यान पुद्गलान् आहारार्थतया गृहन्ति ते खलु तपा पुद्गलानाम् दीन्द्रियादि वक्तव्यता शब्दार्थ-(बेइंदिया णं भंते ! आहारहो ?) हे भगवन् ! द्वीन्द्रियजीव आहार के अर्थी होते हैं ? (हंता, आहारट्ठी) हां, आहार के अर्थी होते हैं (बेइंदियाणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पजइ ?) हे भगवन् ! द्वीन्द्रियों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? (जहा नेरइयागं) जैसे नारकों को (न घर) विशेष (तत्थ णं जे से आभोगनियत्तिए) उनमें जो आभोगतिर्तित आहार है (से णं असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए) यह असंख्यात समय के अन्त मुहूर्त में (वेमायाए आहारट्टे समुप्पजइ) विमात्रा से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है (सेसं जहा पुढविकाइयाणं) शेष पृथिवीकायिकों के समान (जाव आहच्च नीससंति) यावत् कदाचित् निश्वास लेते हैं (नवरं) विशेष (नियमा छद्दिसिं) नियम से छह दिशाओं से। દ્વીન્દ્રિયાદિ વક્તવ્યતા हाथ :-(बेइंदियाणं भंते ! आहारदी)-3 मापन ! दीन्द्रिय ०५ मान थी थाय छ ? (हंता, आहारट्ठी) ही, माहारना Aथी थाय छे (बेइंदियाणं भंते ! केवइकालास आहारट्टे समुप्पज्जइ ?)-डे मापन ! दीन्द्रियो eam मारनी ममिला पन्न थाय छ ? (जहा नेरइयाणं) भ ना२३॥ने. (नवरं) विशेष (तत्थ ण जे से आभोगनिव्वत्तिए) तेसोमा रे मालगिनित मा३२ छ (से णं असंखेज्जइसमयए अंतोमुहुत्तिए) ते असभ्यात समयना मन्तभुतभा (वेमायाए आहारट्टे समुपज्जइ) विमाथी २मा (२नी छ। अत्यन्न थाय छ (सेसं जहा पुढविकाइयोग) शेष पृथ्वीना समान (जाव आहच्च नीससंति) यापत हाथित निपास सेछ (नवर) विशेष (नियमा छदिसिं) नियमथी छ हिशामाथी. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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