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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २८ सू० २ असुरकुमाराणां सचित्ताहारादिनिरूपणम् ५५५ एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम्, नवरम् आभोगनियंतित उत्कृष्टेन दिवस पृथक्त्वस्य आहारार्थः समुत्पद्यते ॥ सू०२ ॥ ___टीका-अथासुरकुमारादि दशभवनपतिषु 'आहारार्थिनः' इत्यादीनि तान्येव सप्तद्वाराणि प्ररूपयितुमाह-'असुरकुमार णं भंते ! आहारट्ठी?' हे भदन्त ! असुरकुमाराः खलु किम् आहारथिनो भवन्ति ? भगवानाह गोयमा ! 'हंता, आहारट्टो' हे गौतम ! हन्त-सत्यम् असुरकुमारा आहारार्थिनो भवन्ति, 'एवं जहा नेरइयाणं तहा असुरकुमाराण विभणियव्यं जाय तेसिं भुज्जो भुजो परिणमंति' एवम्-पूर्वोक्तरीत्या यथा नैरयिकाणां भणितं तथा असुरकुमाराणामपि भणितव्यम्, यावत् तेषां नैरयिकाणां भूयोभूयः परिणमन्ते इत्य. न्तम् तथा च असुरकुमाराणां खलु भदन्त ! कियता कालेन आहारार्थः समुत्पद्यन्ते ? असुरशेष नारकों के समान (एवं जाव थपियकुमाराणं) इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक (णयां आभोगनिवत्तिए उकोसेणं दिवसपुत्तस्स) विशेष यह कि आभो. गनिर्वसित आहार उत्कृष्ट दिवस पृथक्त्व में (आहारहे) आहार की इच्छा (समुजइ) उत्पन्न होती है ।। सू० २ ॥ टीकार्थ-अब असुरकुमार आदि दश भयनपतियों में 'आहारर्थी' आदि पूर्वोक्त द्वारों की प्ररूपणा की जाती है गौतमस्थामी-हे भगवन् ! क्या असुरकुमार आहार के अर्थी होते हैं ! भगवान्-हे गौतम ! हां, असुरकुमार आहार के अर्थी होते हैं। इस प्रकार जैसो वक्तव्यता नारकों की कही है, वैसी ही असुरकुमारों की भी समझनी चाहिए। यावत् उनके लिए वह आहार पुनः-पुनः परिणत होता है। गौतमस्वामी-हे भगवन् ! असुरकुमारों को कितने काल के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ? (एएसि) तमना भाट (भुज्जो भुम्जो) पुन:पुन: (परिणमति) परिरामन थाय छे.(सेसं जहा नेरइयाण) शेष नानी समान (एवं जाय थगियकुमार राण) मे रे नितमा। सुधा (णवर आभोगनियत्तिए उक्कोसेण दिवसपुष्टुत्तास) विशेष मेले मालागानिपतित आहार Gट ५स ४५४५म (आहारदे) माहारनी २छ। (समुपजइ) -1 थाय छे. ॥२०२॥ ટીકાર્થ –હવે અસુરકુમાર આદિ દશ ભવનપતિમાં આહારથી આદિ પૂર્વોક્ત દ્વારની પ્રરૂપણા કરાય છે. શ્રીગૌતમસ્વામી–હે ભગવન્! શું અસુરકુમાર આહારના અથી હેય છે? શ્રીભગવાન–હ ગૌતમ ! હા અસુરકુમાર આહારના અથી હોય છે. એ પ્રકારે જેવી વક્તવ્યતા નારકેની કહી છે, તેવી જ અસુરકુમારની પણ સમજવી જોઈએ. યાહૂ તેમને માટે તે આહાર પુનઃ પુનઃ પરિણત થાય છે. શ્રીગૌતમસ્વામી-હે ભગવન્ ! અસુરકુમારોને કેટલા કાળ પછી આહારની ઈચ્છા થાય છે? શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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