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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २८ सू०१ सचित्ताहारादिनिरूपणम् टोका-अथ 'योद्देशं निर्देशः' इति न्यायेन पूर्वप्रतिज्ञातं प्रथमाधिकारं चित्ताचित्ताहारलक्षणमुद्दिश्य प्ररूपयितुमाह-'नेरइया णं भंते ! फि सचित्ताहारा, अचित्ताहारा मीसाहारा ?' हे भदन्त ! नैरयिकाः खलु किं सचित्ताहाराः सचित्तमाहारयन्तीति सचित्ताहारा भवन्ति ? किंवा अपित्ताहाराः? किंवा मिश्राहाराः-तदुभयाहारा भवन्ति ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'नो सचित्ताहारा, अचित्ताहारा नो मीसाहारा' नैरयिकाः नो सचित्ताहारा भवन्ति अपितु अचि ताहारा भवन्ति, नो वाभिमाहारा भवन्ति, नैरपि हाणां वैक्रियशरीरतया वैक्रियशरीरपरिपूष्टि योग्यानामेव पुद्गलानामाहारकास्ते भवन्ति, ते च पुद्गला अचित्ता एव सम्भवन्ति नो जीवपरि(अहत्ताए) भारी रूप से (नो उदृत्ताए) हल्के रूप से नहीं (दुक्खत्ताए) दुःख रूप से (नो सुहत्ताए) सुखद रूप नहीं (एएसिं) उन का (भुजो भुज्जो) बारबार (परिणमंति) पणिमन करते हैं। टोकार्थ-'यदोद्देशं निर्देशः' अर्थात् जिस क्रम से नाम का उल्लेख किया हो उसी क्रम से उन का निरूपण होता है, इस न्याय के अनुसार सर्व प्रथम कहे गए सचित्ताचित्ताहार का निरूपण किया जाता है गौतमस्वामी-हे भगवन् ! नारक जीव सचित्त का आहार करने वाले हैं, अचित्त का आहार करने वाले हैं, अथवा मिश्र (सचित्त-अचित्त) का आहार करने वाले हैं ? भगवान्-हे गौतम ! नारक सचित्ताहारी नहीं होते, किन्तु अचित्ताहारी होते हैं, वे मिश्राहारी भी नहीं होते हैं। तात्पर्य यह है कि नारक जीव का वैक्रियशरीर होता है, अतएच वैक्रियशरीर की पुष्टि के योग्य ही पुदगलों का आहार करते हैं और ऐसे पुद्गल अचित ही हो सकते हैं, सचित्त नहीं। इसी (असुभत्ताए) मशुल ३५थी (अमणुण्णत्ताए) अमना ३५थी (अमणामत्ताए) मन मा ३५था (अणिच्छियत्ताए) भनिन्छ। ३५थी (अभिज्झित्ताए) मनिषणीय ३५थी (अहत्तए) मारे ३५थी (नो उढड्ताए) ९८४१३५थी नही (दुवखत्ताए) हु:५३५थी (नो सुहत्ताए) सुभ६ ३५था नही (एएसिं) तमनु (भुज्जो भुज्जो) पार पा२ (परिणमंति) परिमन ४२ छ, सू०१॥ 1514 :-'यथोदेशं निर्देशः' अर्थात् भी नामनो वेभ - डाय, ते मथी તેમનું નિરૂપણ થાય છે, એન્યાયના અનુસાર સર્વ પ્રથમ કહેલાં સચિત્તાહારનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે– શ્રીગૌતમસ્વામી–હે ભગવદ્ II નારક જીવ સચિત્તને આહાર કરનાર છે, અચિત્તને આહાર કરનારા છે, અથવા મિત્ર (સચિત્તાચિત્ત) ને આહાર કરનારા છે? શ્રીભગવાન્ હે ગૌતમ ! નારક સચિત્તાહારી નથી હોતાં. પણ આ ત્તાહારી હોય છે, તેઓ મિશ્રાહારી પણ નથી હોતા. તાત્પર્ય એ છે કે નારક જીવના વૈક્રિયશરીર હોય છે. તેથી જ તેઓ ક્રિયશરીરની પુષ્ટિના એગ્ય જ પુદ્ગલેને આહાર કરે છે અને એવા શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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