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________________ ५०४ प्रज्ञापनासूत्रे अथवा बहवः सप्तबिहबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाश्च भवन्ति कश्चित्पुनः षविधबन्धको भवति स च सूक्ष्मसंपरायो बोध्यः २, 'अहवा सत्तविहबंधगा य अविबंधमा य छव्धिहबंधगा य३' अथवा बहब एक सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाश्च षड् विधबन्धकाश्च भवन्ति ३, 'अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधए य ४' अथवा बहवः सप्तविधबन्धकाश्च अष्ट विधवन्धकाश्च भवति कश्चित् एकविधबन्धकश्च उपशान्तमोहः क्षीणमोहश्च भवति ४, 'अहया सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधगा य ५' अथवा सप्तविधवधकाश्च अष्टविध बन्धकाश्च एकविधबन्धकाश्च बहवो भवन्ति ५, 'अहवा सत्त विहबंधगा य अविहबंधगा य छविहबंधए य एगविहबंधए य ६' अथवा बहवः सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाश्च भवन्ति कश्चित्पुनः षविधबन्ध कश्च एक विधचन्धकश्च भवति ६, 'अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छविहर्षधर य एगविहबंधगा य ७' अथवा बहवः सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाश्च भवन्ति कश्चित् सूक्षपसंपरायः षविधन्धकश्च भवति बहव उपशान्तमोहाः क्षीणमोहा वा (२) अथचा बहुत-से सात के बन्धक, बहुत-से आठ के बन्धक और एक कोई छह का वन्धक होता है । छह का बन्धकसूक्ष्म सम्पराय जीव समझना चाहिए । (३) अथवा बहुत से सात के बन्धक, बहुत से आठ के बन्धक और बहुत से छह के बन्धक होते हैं । (४) अथवा बहुत जीव सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक और एक कोई एक का बन्धक होता है, एक का बन्धक उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह जीव होता है । (५) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, और बहुत एक के बन्धक होते हैं। . (६) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, एक छह का बन्धक और एक, एक का बन्धक होता है। (७) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, एक छह का बन्धक और बहुत (उपशान्तमोह और क्षीणमोह) एक के बन्धक होते हैं। (૨) અથવા ઘણા સાતના બંધક, ઘણા આઠના બંધક અને કેઈ એક છના બન્ધક હોય છે. છને બંધ કરવાવાળા સૂક્ષ્મ સમ્પરાય જીવ સમજવા જોઈએ. (૩) અથવા ઘણું સાતના બધ૬, ઘણા આઠના બન્ધક અને અને ઘણું છના બન્ધક હોય છે (૪) અથવા ઘણા જીવ સાતના બન્ધક ઘણું આઠના બન્ધક અને કેઈ એકના બંધક હોય છે એકના બન્ધક ઉપશાન્તમોહ અથવા ક્ષીણમેહ જીવ હિય છે (૫) અથવા ઘણુ સાતના બન્ધક, ઘણા આઠના બંધક અને ઘણુ એકના બંધક હોય છે. (૬) અથવા ઘણું સાતના બધક, ઘણું આઠના બક, એક છના બન્ધક છે. અને એક-એકના બન્ધક બને છે. () અથવા ઘણું સાતના બન્ધક, ઘણા આઠના બન્ધક, એક છના બન્ધક અને શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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