SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २५ सू० १ कर्मप्रकृतिवेदनिरूपणम् ४८७ सप्तविध वेदको वा अष्टविधवेदको वा चतुरियवेद को बा, एवं मनुष्योऽपि, शेषा नैरयिकादयः एकत्वेन पृथक्त्वेनापि नियमाद अष्टौ कर्मप्रकृतीवेदयन्ते, यावद् वैमानिकाः, जीवाः सलु भदन्त ! वेदनीयं कर्म बनन्तः कति कर्मप्रकृतीवेदयन्ते ? गौतम ! सर्वेऽपि तावद भवेयु रष्टविधवेदकाश्च चतुर्विधवेदकाश्च १, अथवा अष्ट विधवेदकाश्च चतुर्विध वेद काश्च सप्तविधवेदकश्च २, अथवा अष्टविधवेदकाश्च चतुर्विधवेदकाश्च सप्तविधवेदकाश्च ३, एवं मनुष्या अपि भणितव्याः । स ० १॥ प्रज्ञापनायां भगवत्यां कमेवेदनास पश्चविंशतितमं पदं समाप्तम् ॥२५॥ या) हे गौतम ! सात प्रकृतियों का वेदक अथवा आठ प्रकृतियों का वेदक अथवा चार प्रकृतियों का वेदक होता है (एवं मणूसे वि) इसी प्रकार मनुष्य भी (सेला नेरइयाइ एगतेण पुहुत्तेग वि नियमा अट्ट कामागडीओ वेदंति) शेष नारकादि एकत्व की अपेक्षा और बहत्व की अपेक्षा से भी नियम से आठ कर्म प्रकृतियों का वेदन करते हैं (जोव घेमाणिया) यावत् चैमानिक । (जीवा णं भंते ! वेणिज्जं कम्मं बंधसाणा कइ कम्मपगडीओ वेदेति १) हे भगवन् ! जीव वेदनीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ? (गोयमा ! सव्ये यि ताव होजा अट्ठविहवेदगा य, चउब्धिहवेदगा य) हे गौतम ! सभी आठ के वेदक होते हैं और चार के वेदक होते हैं-१ (अहया अट्टविहवेदगा य चउविहवेदगा य सत्तविहवेदगे य) अथवा बहुत आठ के वेदक, बहुत चार के वेदक और एक कोई सात का वेदक होता है २ (अहया अहथिहवेदगा य, चउब्धिहवेदगा य, सत्तविहवेदगा य) अथवा बहुत आठ के वेदक, बहुत चार के वेदक और बहुत सात के वेदक होते हैं (एवं मणसा वि भाणियव्या) इसी प्रकार मनुष्यों का भी कथन करना चाहिए । सू० १॥ પ્રકૃતિના વેદક, અથવા આઠ પ્રકૃતિના વેદક અથવા ચાર પ્રકૃતિના વેદક થાય छ (एवं मणूसेवि) मे १२ भनुष्य ५५ (सेसा नेरइयाइया एगत्तेण पुहुत्तेन वि नियमा अटु कम्मपगडीओ वेदेति) शेष ना२४६ सत्पनी अपेक्षाये मने अपनी अपेक्षाथी ५ नियमथी मा8 प्रतिशनु वेहन ४२ छे (जाव वेमाणिया) यापत् मानि. (जीवा ण भंते ! वेयणिज्ज कम्मं बंधमाणा कइ कम्मपगडीओ वेदेति)-हे भगवन ! वो बेनी ५४२ मांधता की प्रतियोनु वेहन ७२ छ ? (गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा अविहवेदगा य, चउविहवेदगा य)-हे गौतम ! मा साना वेह हाय छ मने या ६४ हाय छ (अहा अविहवेदगा य चउविहवेदगा य सत्तविहवेदगे य)અથવા ઘણા આઠના વેદક ઘણા ચારના વેદક અને કેઈ એક સાતના વેદક હોય છે. (अहवा अट्ठविहवदेगा य, चउबिहबदेगो य, सत्तव्विवेदगा य) 4241 धए। माना ६४, ध। याना ये अने ५९॥ सातना यह हाय छे (एवं मणूसा वि भाणियव्या) એજ પ્રકારે મનુષ્યનું પણ કથન કરવું જોઈએ. સૂ૦૧ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy