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________________ ३८८ प्रज्ञापनासूत्रे पदानि न बध्नन्ति, तिर्यग्यो निकायुष्यस्य जवन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन पूर्वकोटि सप्तभिर्वर्ष सहस्र वर्षसहस्रतिभागेन च अधिकां बध्नन्ति, एवं मनुष्यायुष्यस्यापि, तिर्यग्गतिनाम्नो यथा नपुंसकवेदस्य, मनुष्यगतिनाम्नो यथा सातावेदनीयस्य, एकेन्द्रिय नाम्नः पञ्चन्द्रियजातिनाम्नश्च यथा नपुंसकवेदस्य, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियजातिनाम्नो:पृच्छा जघन्येन सागरोमपस्य नव पश्चत्रिंशद्भागान पल्योपमस्यासंख्येयभागोनान्, उत्कृष्टेन तांश्चैव परिपूर्णान् बध्नन्ति, चतुरिकरनामकर्म (एताणि णय पदाणि ण बंधति) इन नौ पदों को नहीं बांधते हैं (तिरिक्खजोणियाउयस्स जहणणेणं अंतो मुहुत्तं) तिर्यंचायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त (उक्कोसेणं पुचकोडी) उत्कृष्ट करोड़ पूर्व (सत्तहिं वाससहस्सेहिं वासलहस्सतिभागेण य अहियं बंधंति) सात हजार वर्ष और एक हजार वर्ष के तीसरे भाग से अधिक बांधते हैं (एवं मणुस्साउयस्स वि) इसी प्रकार मनुष्यायु का भी (तिरियगइनामाए जहा नपुंसगवेयस्स) तिर्यंचगतिनामकर्म का नपुंसक वेद के समान (मणुयगइनामाए जहा सायावेयणिजस्त) मनुष्यगतिनामकर्म का सातावेदनीय के समान (एगिदियनामाए, पंचिंदियजातिनामाए य जहा नपुं. सगवेयस्स) एकेन्द्रियनाम और पंचेन्द्रियजातिनामकर्म का नपुंसक वेद के समान (बेइंदिय-तेइंदियजाइनामाए पुच्छा ?) द्वीन्द्रियनामकर्म और त्रीन्द्रिय नामकर्म संबंधी प्रश्न ? (जहण्णेणं सागरोवमस्स नय पणतीसइभागे) जघन्य सागरोपम के 4 भाग (पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणए) पल्योपम का ण बंधति)-॥ न पहने मांधतो नथी. मे मायु४५ ना२४ी हेनु मे गतिनाम भी, બે શરીર નામ કર્મ વેકિય, આહારક બે આનુપૂર્વી નરક ને દેવની અને એક તીર્થકર નામકર્મ—એ નવ બાબતે એકેન્દ્રિય જીવ બાંધતા નથી. __(तिरक्खजोणियाउयस्स जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं)-तिय यायुनी धन्य मत इतनी मध (उकोसेणं पुवकोडी)-कृष्ट जो पूना (मत्तहिं वाससहस्सेहिं वाससहस्सतिभागेण य अहियं बंधति)-मने सात १२ १५ तथा से १२ नत्रीले मा मधि मेट मांधे थे, (एवं मणुस्साउयस्स वि)-से प्रमाणे मनुष्यायुनु ५९, सभा, (तिरियगइनामाए जहा नपुंसगवेयस्स)-तिय य गति नामभना नस४ वहनी समान भ यो . (मणुयगइनामाए जहा सायावेयणिज्जस्स)-मनुष्य गति नाम भना माता वहनीयनी समान ongो (एगिंदियनामाए पंचिंदिय जातिनामाए य नपुसग यस्स)मेन्द्रिय नाम अने पयन्द्रिय जति नाममना मनसयनी समान यो (बेइंदिय-तेइंदियजाइनामाए पुच्छा)-3 मावन् मेन्द्रिय-दीन्द्रिय अने तन्द्रिय ત્રી ઈન્દ્રિય નામકર્મ સંબંધી પ્રશ્ન કરું છું. (जहण्णेणं सागरोवमस्स नवपणतिसइ भागे, पलिओयमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए)-3 શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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